Book Title: Mahavir ke Samsamayik Shraman Dharmnayak evam unke Siddhant Author(s): Sohanraj Kothari Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf View full book textPage 1
________________ भगवान महावीर के समसामयिक श्रमण-धर्म नायक एवं उनके सिद्धान्त दर्शन-दिग्दर्शन - सोहनराज कोठारी भूतपूर्व जिला न्यायाधीश, राजस्थान भगवान महावीर का युग धार्मिक मतवादों और कर्मकाण्डो से संकुल था । बौद्ध साहित्य (सुत्तनिपात) के अनुसार उस समय तिरेसठ श्रमण सम्प्रदाय विद्यमान थे । जैनागमों (नंदी सूत्र ७६) में तीन को तिरेसठ धर्ममत वादों का उल्लेख मिलता है । यह भेदोपभेद की विस्तृत चर्चा है । प्राग ऐतिहासिक काल से भारतवर्ष में ब्राह्मण संस्कृति व श्रमण संस्मृति, ये दो धाराएं प्रवाहित होती रही है । ईश्वर को कर्त्ता के रूप मे स्वीकार करने उसके प्रति सर्वथा समर्पित रहने की भावना जहां ब्राह्मण संस्कृति का प्रमुख सिद्धान्त रहा, वहीं प्रत्येक प्राणी की स्वतंत्र आत्मा और आत्मा ही उसके सुख-दुख कर्त्ता है का सिद्धान्त श्रमण संस्कृति का मुख्य सिद्धान्त रहा। एक में भक्तिभाव, श्रद्धा, समर्पण आदि को प्रमुखता दी गई व दूसरे में कर्म, ज्ञान, पुरुषार्थ को प्रमुखता दी गई हालांकि भक्ति, कर्म, ज्ञान तीनों योगों का समावेश दोनों संस्कृतियों में तारतम्यता के भेद के उपरांत भी समान रूप से समाहित किया गया । श्रमण संस्कृति की भी अनेक धाराएं रही हैं । उनमें सबसे प्राचीन धारा भगवान ऋषभ की और सबसे अर्वाचीन धारा भगवान बुद्ध की है। शेष सब धाराएं मध्यवर्ती हैं। Jain Education International 2010_03 वैदिक और पौराणिक दोनो साहित्य विद्याओं में भगवान ऋषभ श्रमण धर्म के प्रवर्तक के रूप में उल्लिखित हुए है। भगवान ऋषभ का धर्म विभिन्न युगों में विभिन्न नामों से अभिहित होता रहा है। इतिहास के पृष्ठों में समय-समय पर उसका नाम व्रात्य धर्म, श्रमण धर्म, आर्हत धर्म, निग्रंथ धर्म कहलाता रहा है। भगवान महावीर को बौद्ध ग्रन्थों में “निर्ग्रय ज्ञात पुत्र” के नाम से संबोधित किया गया है। वह जैन धर्म के नाम से प्रसिद्ध हो गया। भगवान महावीर के जीवनकाल में श्रमणों के उनके निर्वाण की दूसरी शताब्दी में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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