Book Title: Mahavir ke Samkalin Vibhinna Atmavad evam Vaishishtya
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf

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Page 4
________________ 62 : प्रो० सागरमल जैन पुनः यहाँ यह शंका उपस्थित होती है कि यदि अजितकेश कम्बल नैतिक धारणा में समवादी और उनका दर्शन भौतिकवादी था तो फिर वह स्वयं साधना मार्ग और देह- दण्डन के पथ का अनुगामी क्यों था, उसने किस हेतु श्रमणों एवं उपासकों का संघ बनाया था । यदि उसकी नैतिकता भोगवादी थी तो उसे स्वयं संन्यास - मार्ग का पथिक नहीं बनना था, न उसके संघ में संन्यासी या गृहत्यागी को स्थान होना था । सम्भवतः वस्तुस्थिति ऐसी प्रतीत होती है कि अजित दार्शनिक दृष्टि से अनित्यवादी था, जगत् की परिवर्तनशीलता पर ही उसका जोर था। वह लोक परलोक, देवता, आत्मा आदि किसी भी तत्त्व को नित्य नहीं मानता था । उसका यह कहना " यह लोक नहीं परलोक नहीं, माता-पिता नहीं, देवता नहीं..." केवल इसी अर्थ का द्योतक है कि सभी की शाश्वत् सत्ता नहीं है, सभी अनित्य हैं। वह आत्मा को भी अनित्य मानता था और इसी आधार पर यह कहा गया कि उसकी नैतिक धारणा में सुकृत और दुष्कृत कर्मों का विपाक नहीं । पश्चिम में यूनानी दार्शनिक हेराविलतु ( 535 ई० पू० ) भी इसी का समकालीन था और वह भी अनित्यतावादी ही था । सम्भवतः अजित नित्य आत्मवाद के आधार पर नैतिकता की धारणा को स्थापित करने में उत्पन्न होने वाली दार्शनिक कठिनाइयों से अवगत था। क्योंकि नित्य आत्मवाद के आधार पर हिंसा की बुराई को नहीं समाप्त किया जा सकता । यदि आत्मा नित्य है तो फिर हिंसा किसकी ? अतः अजित ने यज्ञ, याग एवं युद्ध-जनित हिंसा से मानव जाति को मुक्त करने के लिये अनित्य आत्मवाद का उपदेश दिया होगा । साथ ही ऐसा भी प्रतीत होता है कि वह तृष्णा और आसक्ति से उत्पन्न होने वाले सांसारिक क्लेशों से भी मानव जाति को मुक्त करना चाहता था और इसी हेतु उसने गृह-त्याग और देह - दण्डन, जिससे आत्म-सुख और भौतिक सुख की विभिन्नता को समझा जा सके, को आवश्यक माना था । इस प्रकार अजित का दर्शन आत्म- अनित्यवाद का दर्शन है और उसकी नैतिकता है - आत्म-सुख (Subjective Pleasure ) की उपलब्धि । सम्भवतः ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध ने अपने अनात्मवादी दर्शन के निर्माण में अजित का यह अनित्य आत्मवाद अपना लिया था और उसकी नैतिक धारणा में से देह - दण्डन की प्रणाली को समाप्त कर दिया था। यही कारण है कि अजित की यह दार्शनिक परम्परा बुद्ध की दार्शनिक परम्परा के प्रारम्भ होने पर विलुप्त हो गई। बुद्ध के दर्शन ने अजित के अनित्यतावादी आत्म-सिद्धान्त को आत्मसात् कर लिया और उसकी नैतिक धारणा को परिष्कृत कर उसे ही एक नये रूप में प्रस्तुत कर दिया । अनित्य आत्मवाद के सम्बन्ध में जैनागम उत्तराध्ययन के 14वें अध्ययन की 18वीं गाथा में भी विवेचन प्राप्त होता है, जहाँ यह बताया गया कि यह आत्मा शरीर में उसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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