Book Title: Mahavir ke Samkalin Vibhinna Atmavad evam Vaishishtya
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf

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Page 7
________________ महावीर के समकालीन विभिन्न आत्मवाद : 65 क्योंकि स्वभावतया आत्मा को अक्रिय माने बिना मोक्ष एवं निर्वाण की व्याख्या सम्भव नहीं थी। यही कारण था कि आत्म-अक्रियतावाद या कूटस्थ-नित्य-आत्मवाद का प्रभाव दार्शनिक विचारणा पर बना रहा। निष्क्रिय आत्मविकासवाद एवं नियतिवाद आत्म-अक्रियतावाद या कूटस्थ-आत्मवाद की एक धारा नियतिवाद थी। यदि आत्मा अक्रिय है एवं कूटस्थ है तो पुरुषार्थवाद के द्वारा आत्मविकास एवं निर्वाण-प्राप्ति की धारणा को नहीं समझाया जा सकता था। मक्खली पुत्र गोशालक जो आजीवक सम्प्रदाय का प्रमुख था -- पूर्ण कश्यप की आत्म-अक्रियतावाद की धारणा का तो समर्थक था लेकिन अक्रिय-आत्मवाद के बन्धन में आने के कारण एवं आत्म-विकास की परम्परा को व्यक्त करने में असमर्थ था। अतः निम्न योनि से आत्म-विकास की उच्चतम स्थिति निर्वाण को समझाने के लिये उसने निष्क्रिय आत्म-विकासवाद के सिद्धान्त को स्थापित किया। सामान्यतया उसके सिद्धान्त को नियतिवाद या अपुरुषार्थवाद किंवा भाग्यवाद कहा गया है, लेकिन मेरी दृष्टि में उसके सिद्धान्त को निष्क्रिय आत्म-विकासवाद कहा जाना अधिक समुचित है। ऐसा प्रतीत होता है गौशालक उस युग का चतुर व्यक्ति था। उसने अपने आजीवक सम्प्रदाय में पूर्ण कश्यप के सम्प्रदाय को भी शामिल कर लिया था। प्रारम्भ में उसने भगवान महावीर के साथ अपनी साधना-पद्धति को प्रारम्भ किया था लेकिन उनसे वैचारिक मतभेद होने पर उसने पूर्ण कश्यप के सम्प्रदाय से मिलकर आजीवक सम्प्रदाय स्थापित कर लिया होगा, जिसमें दर्शन एवं सिद्धान्त पूर्ण कश्यप की धारणाओं से प्रभावित थे तो साधना मार्ग का बाल स्वरूप महावीर की साधना-पद्धति से प्रभावित था। बौद्ध आगम एवं जैनागम दोनों में ही उसकी विचारणा का कुछ स्वस्प प्राप्त होता है। यद्यपि उसका प्रस्तुतीकरण एक विरोधी पक्ष के द्वारा हुआ है, यह तथ्य ध्यान में रखना गोशालक की विचारणा का स्वरूप पालि आगम में निम्नानुसार है -- हेतु के बिना -- प्राणी अपवित्र होता है, हेतु के बिना -- प्राणी शुद्ध होते हैं -- पुरुष की सामर्थ्य से कुछ नहीं होता -- सर्व सत्व सर्व प्राणी, सर्व भूत, सर्व जीव, अवश, दुर्बल, निवार्य हैं, वे नियति (भाग्य), संगति एवं स्वभाव के कारण परिणित होते है -- इसके आगे उसकी नैतिकता की धारणा को पूर्वोक्त प्रकार से भ्रष्ट रूप में उपस्थित किया गया है, जो विश्वसनीय नहीं मानी जा सकती। उपर्युक्त आधार पर उसकी धारणा का सार यही है कि आत्मा निष्क्रिय है, अवीर्य है, इसका विकास स्वभावतः होता रहता है। विभिन्न योनियों में होता हुआ यह जीवात्मा अपना विकास करता है और निर्वाण या मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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