Book Title: Mahavir kalin Vibhinna Atmavad evam jain Atmavad ka Vaishishtya Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 2
________________ महावीरकालीन विभिन्न आत्मवाद एवं जैन आत्मवाद का वैशिष्टय ११३ इन विभिन्न आत्मवादों की समालोचना के पूर्व इनके अस्तित्व इस दृष्टि से हमारे अध्ययन में निम्न वर्गीकरण सहायक हो सम्बन्धी प्रमाण प्रस्तुत किये जाने आवश्यक हैं। बौद्ध-पालि-आगम- सकता हैसाहित्य, जैन-आगम एवं उपनिषदों के विभिन्न प्रसंग इस संदर्भ में कुछ १. नित्य या शाश्वत आत्मवाद, तथ्य प्रस्तुत करते हैं। बौद्ध-पालि-आगम के अन्तर्गत सुत्तपिटक में २. अनित्य आत्मवाद, उच्छेद आत्मवाद, देहात्मवाद, दीघनिकाय के ब्रह्मजालसुत्त एवं मज्झिमनिकाय के चूलसारोपमसुत्त में ३. कूटस्थ आत्मवाद, अक्रिय आत्मवाद, नियतिवाद, इन आत्मवादों के सम्बन्ध में कुछ जानकारी प्राप्त होती है। यद्यपि ४. परिणामी आत्मवाद, आत्म कर्तृत्ववाद, पुरुषार्थवाद, उपर्युक्त सत्तों में हमें जो जानकारी प्राप्त होती है, वह बाह्यतः नैतिक ५. सूक्ष्म आत्मवाद, आचार-सम्बन्धी प्रतीत होती है, लेकिन यह जिस रूप में प्रस्तुत की ६. विभु आत्मवाद, गई है, उसे देखकर हमें गहन विवेचना में उतरना होता है, जो ७. अनात्मवाद, अन्ततोगत्वा हमें किसी आत्मवाद-सम्बन्धी दार्शनिक निर्णय पर पहुँचा ८. सर्व आत्मवाद या ब्रह्मवाद। देती है। प्रस्तुत निबन्ध में उपर्युक्त सभी आत्मवादों का विवेचन पालि-आगम में बुद्ध के समकालीन इन आचार्यों को जहाँ सम्भव नहीं है, दूसरे अनात्मवाद और सर्व आत्मवाद के सिद्धान्त एक ओर गणाधिपति, गण के आचार्य, प्रसिद्ध यशस्वी, तीर्थंकर तथा क्रमश: बौद्ध और वेदान्त परम्परा में विकसित हुए हैं, जो काफी बहुजनों द्वारा सुसम्मतरे कहा गया है, वहीं दूसरी ओर उनके नैतिक विस्तृत हैं साथ ही लोक प्रसिद्ध हैं। अत: उनका विवेचन प्रस्तुत सिद्धान्तों को इतने गर्हित एवं निन्द्य रूप में प्रस्तुत किया गया है कि निबन्ध में नहीं किया गया है। परिणामी आत्मवाद का सिद्धान्त स्वतन्त्र साधारण बुद्धि वाला मनुष्य भी इनकी ओर आकृष्ट नहीं हो सकता। रूप से किसका था, यह ज्ञात नहीं हो सका। अत: उसका भी विवेचन अत: यह स्वाभाविक रूप से शंका उपस्थित होती है कि क्या ऐसी इस निबन्ध में नहीं किया गया है। प्रस्तुत प्रयास में इन विभिन्न निन्ध नैतिकता का उपदेश देने वाला व्यक्ति लोकसम्मानित धर्माचार्य आत्मवादों के वर्गीकरण में मुख्यत: एक स्थूल दृष्टि रखी गई है और हो सकता है, लोकपूजित हो सकता है? इसी हेतु कूटस्थ आत्मवाद, नियतिवाद या परिणामी आत्मवाद और यही नहीं कि ये आचार्यगण लोकपूजित ही थे वरन् वे पुरुषार्थवाद महावीर के आत्मवाद का मुख्य अंग माने गये हैं फिर भी आध्यात्मिक विकास के निमित्त विभिन्न साधनायें भी करते थे, महावीर का आत्म-दर्शन समन्वयात्मक है अत: उनके आत्म-दर्शन को उनके शिष्य एवं उपासक भी थे। उपरोक्त तथ्य किसी निष्पक्ष गहन एकान्त रूप से उस वर्ग में नहीं रखा जा सकता है। विचारणा की अपेक्षा करते हैं, जो इसके पीछे रहे हुए सत्य का उद्घाटन कर सकें। अनित्य-आत्मवाद मेरी विनम्र सम्मति में उपर्युक्त विचारकों की नैतिक विचारणा महावीर के समकालीन विचारकों में इस अनित्यात्मवाद का को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है प्रतिनिधित्व अजितकेशकम्बल करते हैं। इस धारणा के अनुसार आत्मा कि वह उन विचारकों की नैतिक विचारणा नहीं है, वरन् उनके या चैतन्य इस शरीर के साथ उत्पन्न होता है और इसके नष्ट हो जाने आत्मवाद या अन्य दार्शनिक मान्यताओं के आधार पर निकाला हुआ के साथ ही नष्ट हो जाता है। उनके दर्शन एवं नैतिक सिद्धान्तों को बौद्ध नैतिक निष्कर्ष है, जो विरोधी पक्ष के द्वारा प्रस्तुत किया गया है। आगम में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है जैनागमों जैसे सूत्रकृतांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र), दान, यज्ञ, हवन व्यर्थ हैं, सुकृत-दुष्कृत कर्मों का फलउत्तराध्ययन आदि में भी कुछ ऐसे स्थल हैं, जिनके आधार पर विपाक नहीं। यह लोक-परलोक नहीं। माता-पिता नहीं, देवता नहीं... तत्कालीन आत्मवादों को प्रस्तुत किया जा सकता है। आदमी चार महाभूतों का बना है, जब मरता है तब (शरीर की) पृथ्वी वैदिक साहित्य में प्राचीनतम उपनिषद् छान्दोग्य और पृथ्वी में, पानी पानी में, आग आग में और वायु वायु में मिल जाती बृहदारण्यक हैं, उनमें भी तत्कालीन आत्मवाद के सम्बन्ध में कुछ है... दान यह मूों का उपदेश है... मूर्ख हो चाहे पण्डित शरीर छोड़ने जानकारी उपलब्ध होती है। कठोपनिषद् एवं गीता में इन विभिन्न पर उच्छिन्न हो जाते हैं...। आत्मवादी धारणाओं का प्रभाव यत्र-तत्र यथेष्ट रूप से देखने को मिल बाह्य रूप से देखने पर अजित की यह धारणा स्वार्थ सुखवाद सकता है। की नैतिक धारणा के समान प्रतीत होती है और उसका दर्शन या लेख के विस्तारभय से यहाँ उक्त सभी ग्रन्थों के विभिन्न आत्मवाद भौतिकवादी परिलक्षित होता है। लेकिन पुनः यहाँ यह शंका संकेतों के आधार पर उनसे प्रतिफलित होने वाले आत्मवादों की उपस्थित होती है कि यदि अजितकेशकम्बल नैतिक धारणा में सुखवादी विचारणा सम्भव नहीं है, अत: हम यहाँ कुछ आत्मवादों का वर्गीकृत और उनका दर्शन भौतिकवादी था तो फिर वह स्वयं साधना मार्ग और रूप में मात्र संक्षिप्त अध्ययन ही करेंगे। इनका विस्तृत और पूर्ण देह-दण्डन के पथ का अनुगामी क्यों था, उसने किस हेतु श्रमणों एवं अध्ययन तो स्वतन्त्र गवेषणा का विषय है। उपासकों का संघ बनाया था। यदि उसकी नैतिकता भोगवादी थी तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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