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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ वह अन्य सभी द्रव्यों के पर्याय परिवर्तन में निमित्त का कारण बनकर क्षमता को बनाया है। कार्य करता है। पुन: यदि काल द्रव्य में ध्रौव्यत्व का अभाव मानेंगे तो
जैनों के अनुसार उत्सर्पिणी काल में क्रमश: विकास और उसका द्रव्यत्व समाप्त हो जायेगा। अत: उसे स्वतन्त्र द्रव्य मानने पर अवसर्पिणी काल में क्रमश: पतन होता है। ज्ञातव्य है कि कालचक्र का उसमें उत्पाद-व्यय के साथ-साथ ध्रौव्यत्व भी मानना होगा। प्रवर्तन जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र आदि कुछ विभागों में ही होता है।
इस प्रकार पाँच अस्तिकाय द्रव्यों एवं एक अनस्तिकाय द्रव्य कालचक्र
का विवेचन करने के पश्चात् आत्मा एवं पुद्गल द्रव्य तथा उनके अर्धमागधी आगम साहित्य में काल की चर्चा उत्सर्पिणी पारस्परिक सम्बन्ध को समझना आवश्यक है। काल और अवसर्पिणी काल के रूप में भी उपलब्ध होती है। इनमें प्रत्येक के छह-छह विभाग किये जाते हैं, जिन्हें आरे कहा जाता है। ये सन्दर्भछह आरे निम्न हैं-१. सुषमा-सुषमा, २. सुषमा, ३. सुषमा-दुषमा, ४. 1. See J.C. Sikdar, Concept of Matter in Jaina Philosoदुषमा-सुषमा, ५. दुषमा और ६. दुषमा-दुषमा। उत्सर्पिणी काल में phy,. P.V. Research Institute, Varanasi-5 इनका क्रम विपरीत होता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल मिलकर 2. उद्धृत Jain Conceptions of Space and Time by Nagin एक कालचक्र पूरा होता है। जैनों की कालचक्र की यह कल्पना बौद्ध
J. Shah, p. 374, Ref. No. 6, Studies in Jainism, Deptt. और हिन्दू कालचक्र की कल्पना से भिन्न है। किन्तु इन सभी में इस .
of Philosophy, University of Poona, 1994. बात को लेकर समानता है कि इन सभी में कालचक्र के विभाजन का
3. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-२, पृ० ८४,८७. आधार सुख-दुःख एवं मनुष्य के नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास की
४. Studies in Jainism, Ed. M.P. Marathe, P. 69.
महावीरकालीन विभिन्न आत्मवाद एवं जैन आत्मवाद का वैशिष्ट्य
धर्म और नैतिकता आत्मा सम्बन्धी दार्शनिक मान्यताओं पर औपनिषदिक साहित्य है, जिसमें आत्मवाद सम्बन्धी विभिन्न परिकल्पनायें, अधिष्ठित रहते हैं। किसी भी धर्म एवं उसकी नैतिक विचारणा को किसी एक आत्मवादी सिद्धान्त के विकास के निमित्त संकलित की जा उसके आत्मा सम्बन्धी सिद्धान्त के अभाव में समुचित रूप से नहीं रही थीं। उपनिषदों का आत्मवाद विभिन्न श्रमण परम्पराओं के आत्मवादी समझा जा सकता। महावीर के धर्म एवं नैतिक सिद्धान्तों के औचित्य- सिद्धान्तों से स्पष्ट रूप से प्रभावित है। उपनिषदों में आत्मासम्बन्धी स्थापन के पूर्व उनके आत्मवाद का औचित्य-स्थापन आवश्यक है। परस्पर विपरीत धारणायें जिस बीज रूप में विद्यमान हैं वे इस तथ्य साथ ही महावीर के आत्मवाद को समझने के लिये उनके समकालीन की पुष्टि में सबल प्रमाण हैं। हाँ, इन विभिन्न आत्मवादों को ब्रह्म की विभिन्न आत्मवादों का समालोचनात्मक अध्ययन भी आवश्यक है। धारणा में संयोजित करने का प्रयास उनका अपना मौलिक है।
यद्यपि भारतीय आत्मवादों के सम्बन्ध में वर्तमान युग में श्री लेकिन यह मान लेना कि महावीर अथवा बुद्ध के समकालीन ए.सी. मुकर्जी ने अपनी पुस्तक "The Nature of Self' एवं श्री विचारकों में आत्मासम्बन्धी दार्शनिक सिद्धान्त थे ही नहीं, यह एक एस.के. सक्सेना ने अपनी पुस्तक "Nature of Consciousness in भ्रान्त धारणा है। Hindu Philosophy" में विचार किया है लेकिन उन्होंने महावीर के
मेरी यह स्पष्ट धारणा है कि महावीर के समकालीन विभिन्न समकालीन आत्मवादों पर समुचित रूप से कोई विचार नहीं किया है। विचारकों की आत्मवाद सम्बन्धी विभिन्न धारणायें विद्यमान थीं। कोई श्री धर्मानन्द कौशाम्बीजी द्वारा अपनी पुस्तक "भगवान बुद्ध" में यद्यपि उसे सूक्ष्म कहता था, तो कोई उसे विभु। किसी के अनुसार आत्मा इस प्रकार का एक लघु प्रयास अवश्य है फिर भी इस सम्बन्ध में एक नित्य थी, तो कोई उसे क्षणिक मानता था। कुछ विचारक उसे (आत्मा व्यवस्थित अध्ययन आवश्यक है।
को) कर्ता मानते थे, तो कुछ उसे निष्क्रिय एवं कूटस्थ मानते थे। इन्हीं पाश्चात्य एवं कुछ आधुनिक भारतीय विचारकों की यह विभिन्न आत्मवादों की अपूर्णता एवं नैतिक व्यवस्था को प्रस्तुत करने मान्यता है कि महावीर एवं बुद्ध के समकालीन विचारकों में आत्मवाद- की अक्षमताओं के कारण ही तीन नये विचार सामने आये- एक ओर सम्बन्धी कोई निश्चित दर्शन नहीं था। तत्कालीन सभी ब्राह्मण और था उपनिषदों का सर्व-आत्मवाद या ब्रह्मवाद, दूसरी ओर था बुद्ध का श्रमण मतवाद केवल नैतिक-विचारणाओं एवं कर्मकाण्डीय-व्यवस्थाओं अनात्मवाद और तीसरी विचारणा थी जैन आत्मवाद की, जिसने इन को प्रस्तुत करते थे। सम्भवत: इस धारणा का आधार तत्कालीन विभिन्न आत्मवादों को एक जगह समन्वित करने का प्रयास किया।
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महावीरकालीन विभिन्न आत्मवाद एवं जैन आत्मवाद का वैशिष्टय
११३ इन विभिन्न आत्मवादों की समालोचना के पूर्व इनके अस्तित्व
इस दृष्टि से हमारे अध्ययन में निम्न वर्गीकरण सहायक हो सम्बन्धी प्रमाण प्रस्तुत किये जाने आवश्यक हैं। बौद्ध-पालि-आगम- सकता हैसाहित्य, जैन-आगम एवं उपनिषदों के विभिन्न प्रसंग इस संदर्भ में कुछ १. नित्य या शाश्वत आत्मवाद, तथ्य प्रस्तुत करते हैं। बौद्ध-पालि-आगम के अन्तर्गत सुत्तपिटक में २. अनित्य आत्मवाद, उच्छेद आत्मवाद, देहात्मवाद, दीघनिकाय के ब्रह्मजालसुत्त एवं मज्झिमनिकाय के चूलसारोपमसुत्त में ३. कूटस्थ आत्मवाद, अक्रिय आत्मवाद, नियतिवाद, इन आत्मवादों के सम्बन्ध में कुछ जानकारी प्राप्त होती है। यद्यपि ४. परिणामी आत्मवाद, आत्म कर्तृत्ववाद, पुरुषार्थवाद, उपर्युक्त सत्तों में हमें जो जानकारी प्राप्त होती है, वह बाह्यतः नैतिक ५. सूक्ष्म आत्मवाद, आचार-सम्बन्धी प्रतीत होती है, लेकिन यह जिस रूप में प्रस्तुत की ६. विभु आत्मवाद, गई है, उसे देखकर हमें गहन विवेचना में उतरना होता है, जो ७. अनात्मवाद, अन्ततोगत्वा हमें किसी आत्मवाद-सम्बन्धी दार्शनिक निर्णय पर पहुँचा ८. सर्व आत्मवाद या ब्रह्मवाद। देती है।
प्रस्तुत निबन्ध में उपर्युक्त सभी आत्मवादों का विवेचन पालि-आगम में बुद्ध के समकालीन इन आचार्यों को जहाँ सम्भव नहीं है, दूसरे अनात्मवाद और सर्व आत्मवाद के सिद्धान्त एक ओर गणाधिपति, गण के आचार्य, प्रसिद्ध यशस्वी, तीर्थंकर तथा क्रमश: बौद्ध और वेदान्त परम्परा में विकसित हुए हैं, जो काफी बहुजनों द्वारा सुसम्मतरे कहा गया है, वहीं दूसरी ओर उनके नैतिक विस्तृत हैं साथ ही लोक प्रसिद्ध हैं। अत: उनका विवेचन प्रस्तुत सिद्धान्तों को इतने गर्हित एवं निन्द्य रूप में प्रस्तुत किया गया है कि निबन्ध में नहीं किया गया है। परिणामी आत्मवाद का सिद्धान्त स्वतन्त्र साधारण बुद्धि वाला मनुष्य भी इनकी ओर आकृष्ट नहीं हो सकता। रूप से किसका था, यह ज्ञात नहीं हो सका। अत: उसका भी विवेचन अत: यह स्वाभाविक रूप से शंका उपस्थित होती है कि क्या ऐसी इस निबन्ध में नहीं किया गया है। प्रस्तुत प्रयास में इन विभिन्न निन्ध नैतिकता का उपदेश देने वाला व्यक्ति लोकसम्मानित धर्माचार्य आत्मवादों के वर्गीकरण में मुख्यत: एक स्थूल दृष्टि रखी गई है और हो सकता है, लोकपूजित हो सकता है?
इसी हेतु कूटस्थ आत्मवाद, नियतिवाद या परिणामी आत्मवाद और यही नहीं कि ये आचार्यगण लोकपूजित ही थे वरन् वे पुरुषार्थवाद महावीर के आत्मवाद का मुख्य अंग माने गये हैं फिर भी आध्यात्मिक विकास के निमित्त विभिन्न साधनायें भी करते थे, महावीर का आत्म-दर्शन समन्वयात्मक है अत: उनके आत्म-दर्शन को उनके शिष्य एवं उपासक भी थे। उपरोक्त तथ्य किसी निष्पक्ष गहन एकान्त रूप से उस वर्ग में नहीं रखा जा सकता है। विचारणा की अपेक्षा करते हैं, जो इसके पीछे रहे हुए सत्य का उद्घाटन कर सकें।
अनित्य-आत्मवाद मेरी विनम्र सम्मति में उपर्युक्त विचारकों की नैतिक विचारणा महावीर के समकालीन विचारकों में इस अनित्यात्मवाद का को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है प्रतिनिधित्व अजितकेशकम्बल करते हैं। इस धारणा के अनुसार आत्मा कि वह उन विचारकों की नैतिक विचारणा नहीं है, वरन् उनके या चैतन्य इस शरीर के साथ उत्पन्न होता है और इसके नष्ट हो जाने आत्मवाद या अन्य दार्शनिक मान्यताओं के आधार पर निकाला हुआ के साथ ही नष्ट हो जाता है। उनके दर्शन एवं नैतिक सिद्धान्तों को बौद्ध नैतिक निष्कर्ष है, जो विरोधी पक्ष के द्वारा प्रस्तुत किया गया है। आगम में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है
जैनागमों जैसे सूत्रकृतांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र), दान, यज्ञ, हवन व्यर्थ हैं, सुकृत-दुष्कृत कर्मों का फलउत्तराध्ययन आदि में भी कुछ ऐसे स्थल हैं, जिनके आधार पर विपाक नहीं। यह लोक-परलोक नहीं। माता-पिता नहीं, देवता नहीं... तत्कालीन आत्मवादों को प्रस्तुत किया जा सकता है।
आदमी चार महाभूतों का बना है, जब मरता है तब (शरीर की) पृथ्वी वैदिक साहित्य में प्राचीनतम उपनिषद् छान्दोग्य और पृथ्वी में, पानी पानी में, आग आग में और वायु वायु में मिल जाती बृहदारण्यक हैं, उनमें भी तत्कालीन आत्मवाद के सम्बन्ध में कुछ है... दान यह मूों का उपदेश है... मूर्ख हो चाहे पण्डित शरीर छोड़ने जानकारी उपलब्ध होती है। कठोपनिषद् एवं गीता में इन विभिन्न पर उच्छिन्न हो जाते हैं...। आत्मवादी धारणाओं का प्रभाव यत्र-तत्र यथेष्ट रूप से देखने को मिल बाह्य रूप से देखने पर अजित की यह धारणा स्वार्थ सुखवाद सकता है।
की नैतिक धारणा के समान प्रतीत होती है और उसका दर्शन या लेख के विस्तारभय से यहाँ उक्त सभी ग्रन्थों के विभिन्न आत्मवाद भौतिकवादी परिलक्षित होता है। लेकिन पुनः यहाँ यह शंका संकेतों के आधार पर उनसे प्रतिफलित होने वाले आत्मवादों की उपस्थित होती है कि यदि अजितकेशकम्बल नैतिक धारणा में सुखवादी विचारणा सम्भव नहीं है, अत: हम यहाँ कुछ आत्मवादों का वर्गीकृत और उनका दर्शन भौतिकवादी था तो फिर वह स्वयं साधना मार्ग और रूप में मात्र संक्षिप्त अध्ययन ही करेंगे। इनका विस्तृत और पूर्ण देह-दण्डन के पथ का अनुगामी क्यों था, उसने किस हेतु श्रमणों एवं अध्ययन तो स्वतन्त्र गवेषणा का विषय है।
उपासकों का संघ बनाया था। यदि उसकी नैतिकता भोगवादी थी तो
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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उसे स्वयं संन्यास - मार्ग का पथिक नहीं बनना था, न उसके संघ में संन्यासी या गृहत्यागी का स्थान होना था।
है कि आत्मनित्यतावाद और आत्म- अनित्यतावाद में कौन सी धारणा सत्य है और कौन सी असत्य ?
सम्भवतः वस्तुस्थिति ऐसी प्रतीत होती है कि अजित दार्शनिक दृष्टि से अनित्यवादी था, जगत् की परिवर्तनशीलता पर ही उसका जोर था। वह लोक परलोक, देवता, आत्मा आदि किसी भी तत्त्व को नित्य नहीं मानता था। उसका यह कहना "यह लोक नहीं परलोक नहीं, माता-पिता नहीं, देवता नहीं..." केवल इसी अर्थ का द्योतक है कि इन सभी की शाश्वत् सत्ता नहीं है, सभी अनित्य हैं। वह आत्मा को भी अनित्य मानता था और इसी आधार पर यह कहा गया कि उसकी नैतिक धारणा में सुकृत और दुष्कृत कर्मों का विपाक नहीं
इस प्रकार यह तो निर्भ्रान्त रूप से सत्य है कि महावीर के समकालीन विचारकों में आत्म-अनित्यतावाद को मानने वाले विचारक थे। लेकिन वह अनित्य आत्मवाद भौतिक आत्मवाद नहीं, वरन् दार्शनिक अनित्य आत्मवाद था। उनके मानने वाले विचारक आधुनिक सुखवादी विचारकों के समान भौतिक सुखवादी नहीं थे, वरन् वे आत्म- शान्ति एवं आसक्तिनाश या तृष्णाक्षय के हेतु प्रयासशील थे।
ऐसा प्रतीत होता है कि अजित का दर्शन और धर्म (नैतिकता ) बौद्ध दर्शन एवं धर्म की पूर्व कड़ी था। बौद्धों ने उसके दर्शन की जो पश्चिम में यूनानी दार्शनिक हेराक्टिस (५३५ ई.पू.) भी आलोचना की थी अथवा उसके नैतिक निष्कर्ष प्रस्तुत किये थे कि इसी का समकालीन था और वह भी अनित्य वादी ही था। उसके अनुसार दुष्कृत एवं सुकृत कर्मों का विपाक नहीं, यही आलोचना पश्चात् काल में बौद्ध आत्मवाद को कृतप्रणाश एवं अकृत-कर्मभोग के दोष से युक्त कहकर हेमचन्द्राचार्य ने प्रस्तुत की।
अनित्य आत्मवाद की धारणा नैतिक दृष्टि से उचित नहीं बैठती क्योंकि उसके आधार पर कर्म विपाक या कर्म फल के सिद्धान्त को नहीं समझाया जा सकता। समस्त शुभाशुभ कर्मों का प्रतिफल तत्काल प्राप्त नहीं होता । अतः कर्म फल की धारणा के लिये नित्य आत्मवाद की ओर आना होता है। दूसरे अनित्य आत्मवाद की धारणा में पुण्य संचय, परोपकार, दान आदि के नैतिक आदर्शों का भी कोई अर्थ नहीं रहता ।
सम्भवतः अजित नित्य आत्मवाद के आधार पर नैतिकता की धारणा को स्थापित करने में उत्पन्न होने वाली दार्शनिक कठिनाइयों से अवगत था। क्योंकि नित्य आत्मवाद के आधार पर हिंसा की बुराई को नहीं समाप्त किया जा सकता। यदि आत्मा नित्य है तो फिर हिंसा किसकी? अतः अजित ने यश याग एवं युद्ध जनित हिंसा से मानवजाति को मुक्त करने के लिये अनित्य आत्मवाद का उपदेश दिया होगा |
साथ ही ऐसा भी प्रतीत होता है कि वह तृष्णा और आसक्ति से उत्पन्न होने वाले सांसारिक क्लेशों से भी मानव जाति को मुक्त करना चाहता था और इसी हेतु उसने गृह त्याग और देह- दण्डन, जिससे आत्म-सुख और भौतिक सुख की विभिन्नता को समझा जा सके, को आवश्यक माना था।
इस प्रकार अजित का दर्शन आत्म-अनित्यवाद का दर्शन है और उसकी नैतिकता है— आत्म-सुख (Subjective Pleasure) की
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उपलब्धि।
सम्भवतः ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध ने अपने अनात्मवादी दर्शन के निर्माण में अजित का यह अनित्य आत्मवाद अपना लिया था और उसकी नैतिक धारणा में से देह दण्डन की प्रणाली को समाप्त कर दिया था। यही कारण है कि अजित की यह दार्शनिक परम्परा बुद्ध की दार्शनिक परम्परा के प्रारम्भ होने पर विलुप्त हो गई। बुद्ध के दर्शन
अजित के अनित्यतावादी आत्म-सिद्धान्त को आत्मसात् कर लिया और उसकी नैतिक धारणा को परिष्कृत कर उसे ही एक नये रूप में प्रस्तुत कर दिया।
अनित्य आत्मवाद के सम्बन्ध में जैनागम उत्तराध्ययन के १४वें अध्ययन की १८वीं गाथा में भी विवेचन प्राप्त होता है, जहाँ यह बताया गया कि यह आत्मा शरीर में उसी प्रकार रहती है जैसे तिल में तेल, अरणी में अग्नि या दूध में घृत रहता है और इस शरीर के नष्ट हो जाने के साथ ही वह नष्ट हो जाती है।
औपनिषदिक साहित्य में कठोपनिषद् की प्रथम वल्ली के अध्याय १ के २०वें श्लोक में नचिकेता भी यह रहस्य जानना चाहता
नित्य कूटस्थ आत्मवाद
वर्तमान दार्शनिक परम्पराओं में भी अनेक इस सिद्धान्त के समर्थक हैं कि आत्मा कूटस्थ ( निष्क्रिय) एवं नित्य है, सांख्य और वेदान्त भी इसके समर्थक हैं। जिन विचारकों ने आत्मा को कूटस्थ माना है, उन्होंने उसे नित्य भी माना है। अतः हमने भी अपने विवेचन हेतु नित्य आत्मवाद और कूटस्थ आत्मवाद दोनों को समन्वित रूप से एक ही साथ रखा है। महावीर के समकालीन कूटस्थ नित्य आत्मवाद के प्रतिनिधि पूर्णकश्यप थे।
पूर्णकश्यप के सिद्धान्तों का चित्रण बौद्ध साहित्य में इस प्रकार है- अगर कोई क्रिया करे, कराये, काटे, कटवाये, कष्ट दे या दिलाये― चोरी करे- प्राणियों को मार डाले - परदार गमन करे या असत्य बोले तो भी उसे पाप नहीं तीक्ष्ण धार वाले चक्र से यदि कोई इस संसार के प्राणियों के माँस का ढेर लगा दे तो भी उसे कोई पाप नहीं है, दोष नहीं है— दान, धर्म और सत्य भाषण से कोई पुण्य - प्राप्ति नहीं होती।
इस धारणा को देखकर सहज ही शंका होती है कि इस प्रकार का उपदेश देने वाला कोई यशस्वी, लोकसम्मानित व्यक्ति नहीं हो सकता, वरन् कोई धूर्त होगा। लेकिन पूर्णकश्यप एक लोकपूजित शास्ता थे, अतः यह निश्चित है कि ऐसा अनैतिक दृष्टिकोण उनका नहीं हो सकता, यह उनके आत्मवाद का नैतिक फलित होगा जो एक
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महावीरकालीन विभिन्न आत्मवाद एवं जैन आत्मवाद का वैशिष्ट्य
११५ विरोधी दृष्टिकोण वाले लोगों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। फिर भी इसमें निष्क्रिय आत्मविकासवाद एवं नियतिवाद इतनी सत्यता अवश्य होगी कि पूर्णकश्यप आत्मा को अक्रिय मानते
आत्म-अक्रियतावाद या कूटस्थ-आत्मवाद की एक धारा थे, वस्तुत: उनकी आत्म-अक्रियता की धारणा का उपर्युक्त निष्कर्ष नियतिवाद थी। यदि आत्मा अक्रिय है एवं कूटस्थ है तो पुरुषार्थवाद के निकालकर उनके विरोधियों ने उनके मत को विकृत रूप में प्रस्तुत द्वारा आत्मविकास एवं निर्वाण-प्राप्ति की धारणा को नहीं समझाया जा किया है।
सकता था। ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्णकश्यप के इस आत्म-अक्रियवाद मक्खलीपुत्र गोशालक जो आजीवक सम्प्रदाय का प्रमुख को उसके पश्चात् कपिल के सांख्य दर्शन और भगवद्गीता में भी था- पूर्णकश्यप की आत्म-अक्रियतावाद की धारणा का तो समर्थक अपना लिया गया था। कपिल और भगवद्गीता का काल लगभग था लेकिन अक्रिय-आत्मवाद के कारण एवं आत्म-विकास की परम्परा ४०० ई.पू. माना जाता है और इस आधार पर यह माना जा सकता है को व्यक्त करने में असमर्थ था। अत: निम्न योनि से आत्म-विकास की कि ये पूर्णकश्यप के आत्म-अक्रियवाद से अवश्य प्रभावित हुए होंगे। उच्चतम स्थिति निर्वाण को प्राप्त करने के लिये उसने निष्क्रिय आत्मकपिल के दर्शन में आत्म-अक्रियवाद के साथ ही ईश्वर का अभाव विकासवाद के सिद्धान्त को स्थापित किया। सामान्यतया उसके सिद्धान्त इस बात का सबल प्रमाण है कि वह किसी अवैदिक श्रमण परम्परा के को नियतिवाद किंवा भाग्यवाद कहा गया है, लेकिन मेरी दृष्टि में उसके दर्शन से प्रभावित था और वह दर्शन पूर्ण कश्यप का आत्म अक्रियवाद सिद्धान्त को निष्क्रिय आत्म-विकासवाद कहा जाना अधिक समुचित का दर्शन ही होगा, क्योंकि उसमें भी ईश्वर के लिये कोई स्थान नहीं है। था। सांख्य दर्शन भी आत्मा को त्रिगुणयुक्त प्रकृति से भिन्न मानता है ऐसा प्रतीत होता है गौशालक उस युग का प्रबुद्ध व्यक्ति और मारना, मरवाना आदि सभी को प्रकृति का परिणाम मानता है। था, उसने अपने आजीवक सम्प्रदाय में पूर्णकश्यप के सम्प्रदाय को भी आत्मा सबसे प्रभावित नहीं होती है। वह यह भी नहीं मानता है कि शामिल कर लिया था। प्रारम्भ में उसने भगवान् महावीर के साथ अपनी आत्मा को नष्ट किया जा सकता है। आत्मा बन्धन में नहीं आता, वरन् साधना-पद्धति को प्रारम्भ किया था लेकिन उनसे वैचारिक मतभेद होने प्रकृति ही प्रकृति को बाँधती है। अत: शुभाशुभ कार्यों का प्रभाव भी पर उसने पूर्णकश्यप के सम्प्रदाय से मिलकर आजीवक सम्प्रदाय आत्मा पर नहीं पड़ता। इस प्रकार पूर्णकश्यप का दर्शन कपिल के स्थापित कर लिया होगा, जिसका दर्शन एवं सिद्धान्त पूर्ण कश्यप की दर्शन का पूर्ववर्ती था। इसी प्रकार गीता में भी पूर्ण कश्यप के इस धारणाओं से प्रभावित थे तो साधना मार्ग का बाह्य स्वरूप महावीर की आत्म-अक्रियबाद की प्रतिध्वनि यत्र-तत्र सुनाई देती है, जो सांख्य साधना-पद्धति से प्रभावित था। दर्शन के माध्यम से उस तक पहुंची थी। स्थानाभाव से हम यहाँ उन बौद्ध आगम एवं जैनागम दोनों में ही उसकी विचारणा का सब प्रमाणों को प्रस्तुत करने में असमर्थ हैं। पाठकगण उल्लिखित कुछ स्वरूप प्राप्त होता है। यद्यपि उसका प्रस्तुतीकरण एक विरोधी पक्ष स्थानों पर उन्हें देख सकते हैं।
के द्वारा हुआ है, यह तथ्य ध्यान में रखना होगा। उपर्युक्त संदर्भो के आधार पर बौद्ध आगम में प्रस्तुत पूर्ण गोशालक की विचारणा का स्वरूप पालि आगम में निम्नानुसार कश्यप के दृष्टिकोण को एक सही दृष्टिकोण से समझा जा सकता है। हैफिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उपर्युक्त आत्म
हेतु के बिना- प्राणी अपवित्र होता है, हेत के बिनाअक्रियवाद की धारणा नैतिक सिद्धान्तों के स्थापन में तार्किक दृष्टि से प्राणी शुद्ध होते हैं- पुरुष की सामर्थ्य से कुछ नहीं होता- सर्व उपयुक्त नहीं ठहरती है।
सत्व सर्व प्राणी, सर्वभूत, सर्वजीव, अवश, दुर्बल, निवीर्य हैं, वे यदि आत्मा अक्रिय है, वह किसी क्रिया का कर्ता नहीं है तो नियति (भाग्य), संगति एवं स्वभाव के कारण परिणित होते हैंफिर वह शुभाशुभ कार्यों का उत्तरदायी भी नहीं माना जा सकता है। इसके आगे उसकी नैतिकता की धारणा को पूर्वोक्त प्रकार स्वयं प्रकृति भी चेतना एवं शुभाशुभ के विवेक के अभाव में उत्तरदायी से भ्रष्ट रूप में उपस्थित किया गया है, जो विश्वसनीय नहीं मानी जा नहीं बनती। इस प्रकार आत्म-अक्रियवाद के सिद्धान्त में उत्तरदायित्व सकती। की धारणा को अधिष्ठित नहीं किया जा सकता और उत्तरदायित्व के उपर्युक्त आधार पर उसकी धारणा का सार यही है कि अभाव में नैतिकता, कर्तव्य, धर्म आदि का मूल्य शून्यवत् हो जाता है। आत्मा निष्क्रिय है, अवीर्य है, इसका विकास स्वभावत: होता रहता है।
- इस प्रकार आत्म-अक्रियतावाद सामान्य बुद्धि की दृष्टि से विभिन्न योनियों में होता हुआ यह जीवात्मा अपना विकास करता है एवं नैतिक नियमों के स्थापन की दृष्टि से अनुपयोगी ठहरता है, फिर और निर्वाण या मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। भी दार्शनिक दृष्टि से इसका कुछ मूल्य है क्योंकि स्वभावतया आत्मा
लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि नैतिक दृष्टि से वह व्यक्ति को अक्रिय माने बिना मोक्ष एवं निर्वाण की व्याख्या सम्भव नहीं थी। को अपनी स्थिति के अनुसार कर्तव्य करने का उपदेश देता था, यही कारण था कि आत्म-अक्रियतावाद या कूटस्थ-नित्य-आत्मवाद अन्यथा वह स्वयं भी नग्न रहना आदि देह-दण्डन को क्यों स्वीकार का प्रभाव दार्शनिक विचारणा पर बना रहा।
करता? जिस प्रकार बाद में गीता में अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
कर्तव्य करने का उपदेश दिया गया था। वर्तमान युग में ब्रेडले ने की दार्शनिक एवं नैतिक कमजोरियों को भी जानते रहे होंगे। अत: (Mystation and its duties) समाज में अपनी स्थिति के अनुसार उन्होंने अपने आत्मवाद को इनमें से किसी भी सिद्धान्त के साथ नहीं कर्तव्य करने के नैतिक सिद्धान्त को प्रतिपादित किया, उसी प्रकार वह बाँधा। उनका आत्मवाद इनमें से किसी भी एक वर्ग के अन्तर्गत नहीं छ: अभिजातियों (वर्गों) को उनकी स्थिति के अनुसार कर्त्तव्य करने आता, वरन् उनका आत्मवाद इन सबका एक सुन्दर समन्वय है। का उपदेश देता होगा और यह मानता होगा कि आत्मा अपनी
आचार्य हेमचन्द्र ने अपने वीतरागस्तोत्र में एकांत नित्य अभिजातियों के कर्तव्य का पालन करते हुए स्वत: विकास की क्रमिक आत्मवाद और एकान्त अनित्य आत्मवाद के दोषों का दिग्दर्शन कराते गति से आगे बढ़ता रहता है।
हुए बताया है कि वीतराग का दर्शन इन दोनों के दोषों से मुक्त है। पारमार्थिक दृष्टि से या तार्किक दृष्टि से नियतिवादी विचारणा विस्तारभय से यहाँ नित्य आत्मवाद और अनित्य आत्मवाद तथा का चाहे कुछ मूल्य रहा हो, लेकिन नैतिक विवेचना में नियतिवाद कूटस्थ आत्मवाद और परिणामी आत्मवाद के दोषों की विवेचना में न अधिक सफल नहीं हो पाया। नैतिक विवेचना में इच्छा-स्वातन्त्र्य पड़कर हमें केवल यही देखना है कि महावीर ने इन विभिन्न आत्मवादों (Free-will) की धारणा आवश्यक है, जबकि नियतिवाद में उसका का किस रूप से समन्वय किया हैकोई स्थान नहीं रहता है। फिर दार्शनिक दृष्टि से भी नियतिवादी तथा (१) नित्यता- आत्मा अपने अस्तित्व की दृष्टि से सदैव रहता है स्वत: विकासवादी धारणायें निर्दोष हों, ऐसी बात भी नहीं है। अर्थात् नित्य है। दूसरे शब्दों में आत्म तत्त्व रूप से नित्य है,
शाश्वत है। नित्यकूटस्थ-सूक्ष्म-आत्मवाद
(२) अनित्यता- आत्मा पर्याय की दृष्टि से अनित्य है। आत्मा के बुद्ध का समकालीन एक विचारक पकुधकच्चायन आत्मा को एक समय में जो पर्याय रहते हैं, वे दूसरे समय में नहीं रहते हैं। आत्मा नित्य और कूटस्थ (अक्रिय) मानने के साथ ही उसे सूक्ष्म मानता था। की अनित्यता व्यावहारिक दृष्टि से है, बद्धात्मा में पर्याय परिवर्तन के 'ब्रह्मजालसुत्त' के अनुसार उसका दृष्टिकोण इस प्रकार का था- कारण अनित्यत्व का गुण भी रहता है।
सात पदार्थ किसी के बने हुए नहीं हैं (नित्य हैं), वे तो (३) कूटस्थता- स्वलक्षण की दृष्टि से आत्मा कर्ता या भोक्ता अवध्य कूटस्थ- अचल हैं।- जो कोई तीक्ष्ण शस्त्र से किसी का अथवा परिणमनशील नहीं है। सिर काट डालता है, वह उसका प्राण नहीं लेता। बस इतना ही (४) परिणामीपन या कर्तृत्व- सभी बद्धात्माएँ कर्मों की कर्ता और समझना चाहिये कि सात पदार्थों के बीच अवकाश में उसका शस्त्र घुस भोक्ता हैं। यह एक आकस्मिक गुण है, जो कर्म पुद्गलों के संयोग से गया है।
उत्पन्न होता है। इस प्रकार इस धारणा के अनुसार आत्मा नित्य और कूटस्थ (५-६) सूक्ष्मता तथा विभुता- आत्मा संकोच एवं विकासशील है। तो थी ही साथ ही सूक्ष्म और अछेद्य भी थी। पकुधकच्चायन की इस आत्म-प्रदेश घनीभूत होकर इतने सूक्ष्म हो जाते हैं कि आगमिक दृष्टि धारणा के तत्त्व उपनिषदों तथा गीता में भी पाये जाते हैं। उपनिषदों से एक सूचिकाग्रभाग पर असंख्य आत्मा सशरीर निवास करती है। में आत्मा को जो, सरसों या चावल के दाने से सूक्ष्म माना गया है तथा तलवार की सूक्ष्म तीक्ष्ण धार भी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों के शरीर तक गीता में उसे अछेद्य, अवध्य कहा गया है।
को नष्ट नहीं कर सकती। विभुता की दृष्टि से एक ही आत्मा के प्रदेश सूक्ष्म आत्मवाद की धारणा भी दार्शनिक दृष्टि से अनेक यदि प्रसारित हों तो समस्त लोक को व्याप्त कर सकते हैं। दोषों से पूर्ण है। अत: बाद में इस धारणा में काफी परिष्कार हुआ है। इस प्रकार हम देखते हैं कि महावीर का आत्मवाद तत्कालीन
विभिन्न आत्मवादों का सुन्दर समन्वय है। यही नहीं वरन् वह समन्वय महावीर का आत्मवाद
इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि सभी प्रकार की आत्मवादी धारायें यदि उपर्युक्त आत्मवादों का तार्किक वर्गीकरण किया जाये अपने-अपने दोषों से मुक्त हो-होकर यहाँ आकर मिल जाती हैं। तो हम उनके छ: वर्ग बना सकते हैं
हेमचन्द्र इस समन्वय की औचित्यता को एक सुन्दर उदाहरण (१) अनित्य आत्मवाद या उच्छेद आत्मवाद
द्वारा प्रस्तुत करते हैं(२) नित्य आत्मवाद या शाश्वत आत्मवाद
गुडो हि कफ हेतुःस्यात् नागरं पित्तकारणम । (३) कूटस्थ आत्मवाद या निष्क्रिय आत्मवाद एवं नियतिवाद
ब्दयात्मनि न दोषोस्ति गुडनागरभेषजे ।। (४) परिणामी आत्मवाद या कर्ता आत्मवाद या पुरुषार्थवाद'
जिस प्रकार गुड़ कफ जनक और सोंठ पित्त जनक है लेकिन (५) सूक्ष्म आत्मवाद
दोनों के समन्वय में यह दोष नहीं रहते।। (६) विभु आत्मवाद (यही बाद में उपनिषदों का सर्वात्मवाद या इसी प्रकार विभिन्न आत्मवाद पृथक्-पृथक् रूप से नैतिक ब्रह्मवाद बना है)
अथवा दार्शनिक दोषों से ग्रस्त है, लेकिन महावीर द्वारा किये गये इस महावीर अनेकान्तवादी थे, साथ ही वे इन विभिन्न आत्मवादों समन्वय में वे सभी अपने-अपने दोषों से मुक्त हो जाते हैं। यही
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जैन दर्शन में आत्मा
महावीर के आत्मवाद की औचित्यता है। यही उनका वैशिष्टय है। सन्दर्भ
१. मज्झिमनिकाय, २/३/७
२. संयुक्तनिकाय, ३/१/१
३. (अ) सूत्रकृतांग, प्रथम अध्ययन, (ब) भगवती १/९/५, शतक १५ (स) उत्तराध्ययन १४ / १८
४. ये प्राचीनतम माने जाने वाले उपनिषद् महावीर के समकालीन या उनसे कुछ परवर्ती ही हैं, क्योंकि महावीर के समकालीन "अजातशत्रु " का नाम निर्देश इनमें उपलब्ध है। बृहदा. २/
१५-१७
८.
गीता ३/२७/ २ /२१, ८/१७
अंगुत्तरनिकाय का छक्क निपातसुत्त तथा भगवान् बुद्ध, धर्मानन्द कौशम्बी, पृ. १८
५.
६.
जैन दर्शन
आत्मा या जीव द्रव्य को अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत रखा जाता है। जीव द्रव्य का लक्षण उपयोग या चेतना को माना गया है। इसीलिए इसे चेतन द्रव्य भी कहा जाता है। उपयोग या चेतना के दो प्रकारों की चर्चा आगमों में मिलती है-निराकार उपयोग और साकार उपयोग। इन दोनों को क्रमशः दर्शन और ज्ञान कहा जाता है। निराकार उपयोग, वस्तु के सामान्य स्वरूप का ग्रहण करने के कारण, दर्शन कहा जाता है और साकार उपयोग, को वस्तु के विशिष्ट स्वरूप का ग्रहण करने के कारण, ज्ञान कहा जाता है। जीव द्रव्य के सन्दर्भ में जैन दर्शन की विशेषता यह है कि वह जीव द्रव्य को एक अखण्ड द्रव्य न मानकर अनेक द्रव्य मानता है। उसके अनुसार प्रत्येक जीव की स्वतन्त्र सत्ता है और विश्व में जीवों की संख्या अनन्त है। इस प्रकार संक्षेप में जीव अस्तिकाय, चेतन, अरूपी और अनेक द्रव्य है।
जीव को जैन दर्शन में आत्मा भी कहा गया है अतः यहाँ आत्मा के सम्बन्ध में कुछ मौलिक प्रश्नों पर विचार किया जा रहा हैआत्मा का अस्तित्व
जैन दर्शन में जीव या आत्मा को एक स्वतन्त्र तत्त्व या द्रव्य माना गया है। जहाँ तक हमारे आध्यात्मिक जीवन का प्रश्न है आत्मा के अस्तित्व पर शंका करके आगे बढ़ना असम्भव है। जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास की पहली शर्त आत्म-विश्वास है। विशेषावश्यकभाष्य के गणधरवाद में आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए निम्न तर्क प्रस्तुत किये गये हैं
स्वरूप एवं विश्लेषण
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७. गोशालक की छः अभिजातियाँ व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएं है
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(१)
१. कृष्ण, २. नील, ३. लोहित, ४. हरित ५ शुक्ल, ६. परमशुक्ल, तुलनीय, जैनों का लेश्या - सिद्धान्त कृष्ण, (२) नील, (३) कपोत, (४) तेजो, (५) पद्म, (६) शुक्ल
(१) जीव का अस्तित्व जीव शब्द से ही सिद्ध है, क्योंकि असद् वस्तु की कोई सार्थक संज्ञा ही नहीं बनती।
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(विचारणीय तथ्य यह है कि गोशालक के अनुसार निर्मन्थ साधु तीसरे लोहित नामक वर्ग में हैं जबकि जैन धारणा भी उसे तेजोलेश्या (लोहित) वर्ग का साधक मानती है)
छान्दोग्य उपनिषद्, ३ / १४ / ३ बृहदारण्यक उपनिषद्, ५ / ६ / १ कठोपनिषद् २/४/१२
९. गीता २/१८-२०.
आत्मा : स्वरूप एवं विश्लेषण
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(२) जीव है या नहीं, यह सोचना मात्र ही किसी विचारशील सत्ता अर्थात् जीव की सत्ता को सिद्ध कर देता है । देवदत्त जैसा सचेतन प्राणी ही यह सोच सकता है कि वह स्तम्भ है या पुरुष
(३) शरीर स्थित जो यह सोचता है कि 'मैं नहीं हूँ' वही तो जीव है। जीव के अतिरिक्त संशयकर्ता अन्य कोई नहीं है। यदि आत्मा ही न हो तो ऐसी कल्पना का प्रादुर्भाव ही कैसे हो कि मैं हूँ या नहीं? जो निषेध कर रहा है वह स्वयं ही आत्मा है। संशय के लिए किसी ऐसे तत्व के अस्तित्व की अनिवार्यता है जो उस विचार का आधार हो । बिना अधिष्ठान के कोई विचार या चिन्तन सम्भव नहीं हो सकता। संशय का अधिष्ठान कोई न कोई अवश्य होना चाहिए। महावीर गौतम से कहते हैं- हे गौतम! यदि कोई संशयकर्ता ही नहीं है तो 'मैं हूँ' या 'नहीं हूँ' यह संशय कहाँ से उत्पन्न होता है? तुम स्वयं अपने ही विषय में सन्देह कैसे कर सकते हो, फिर किसमें संशय न होगा ? क्योंकि संशय आदि जितनी भी मानसिक और बौद्धिक क्रियाएँ हैं, वे सब आत्मा के कारण ही हैं। जहाँ संशय होता है, वहाँ आत्मा का अस्तित्व अवश्य स्वीकारना पड़ता है। वस्तुतः जो प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध है, उसे सिद्ध करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं । आत्मा स्वयंसिद्ध है, क्योंकि उसी के आधार पर संशयादि उत्पन्न होते हैं सुख-दुःखादि को सिद्ध करने के लिए भी किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं। ये सब आत्मपूर्वक ही हो सकते हैं। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जिसके द्वारा जाना जाता है, वही आत्मा है । ४
आचार्य शंकर ब्रह्मसूत्र भाष्य में ऐसे ही तर्क देते हुए कहते हैं कि जो निरसन कर रहा है वही तो उसका स्वरूप है। 4 आत्मा के
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