Book Title: Mahavir ka Shravak Varg Tab aur Ab Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf View full book textPage 5
________________ आध्यात्मिक साधना सब कुछ श्रमण संस्था का कार्य है, गृहस्थ तो मात्र उपासक है। उसके कर्तव्यों की इति श्री साधु, साध्वियों को दान देने अथवा उनके द्वारा निर्देशित संस्था को दान देने तक सीमित है। आज हमें इस बात का एहसास करना होगा कि जैन धर्म की संघ व्यवस्था में हमारा क्या और कितना गरिमामय स्थान है। चर्तुविध संघ के चार पायों में यदि एक भी पाया चरमराता या टूटता है तो दूसरे का अस्तित्व भी निरापद नहीं रह सकता है। यदि श्रावक अपने दायित्व और कर्तव्य को विस्मृत करता है तो संघ के अन्य घटकों का अस्तित्व भी निरापद नहीं रह सकता। चाहे यह बात कहने में कठोर हो लेकिन यह एक स्पष्ट सत्य है कि आज का हमारा श्रमण और श्रमणी वर्ग शिथिलाचार में आकण्ठ डूबता जा रहा है। यहाँ मैं किसी सम्प्रदाय विशेष की बात नहीं कर रहा हूँ और न मेरा यह आक्षेप उन पूज्य मुनिवृन्दों के प्रति है जो निष्ठापूर्वक अपने चारित्र का पालन करते है, यहाँ मेरा इशारा एक सामान्य स्थिति से है। अन्य वर्गों की अपेक्षा जैन श्रमण संस्था एक आदर्श प्रतीत होती है, फिर भी यदि हम उसके अंतस्थल में झांककर देखते हैं तो कहीं न कहीं हमें हमारी आदर्श और निष्ठा को ठेस अवश्य लगती है। आज जिन्हें हम आदर्श और वन्दनीय मान रहे हैं उनके जीवन में छल-छद्म, दुराग्रह और अहम् के पोषण की प्रवृत्तियाँ तथा वासना-जीवन के प्रति ललक को देखकर मन पीड़ा से भर उठता है। किन्तु उनके इस पतन का उत्तरदायी कौन है, क्या वे स्वंय ही हैं? वास्तविकता यह है कि उनके इस पतन का उत्तदायित्व हमारे श्रावक वर्ग पर भी है, या तो हमनें उन्हें इस पतन के मार्ग की ओर अग्रसर किया है या कम से कम उनके सहयोगी बने हैं। साधु-साध्वियों में शिथिलाचार, संस्थाओं के निर्माण की प्रतिस्पर्धा और मठवासी प्रवृत्तियाँ आज जिस तेजी से बढ़ रही हैं, वह मध्यकालीन चैत्यवासी और भट्टारक परम्परा, जिसकी हम आलोचना करते नहीं अघाते, उनसे भी कहीं आगे है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि साधु-साध्वियों में जो शिथिलाचार बढ़ा है वह हमारे सहयोग से ही बढ़ा है। आज श्रावक, उनमें भी विशेष रूप से सम्पन्न श्रावक, धर्म के नाम पर होने वाले बाह्य आडम्बरों में अधिक रुचि ले रहा है। आध्यात्मिक साधना के स्थान पर वह प्रदर्शनप्रिय हो रहा है। धर्म प्रभावना का नाम लेकर आज के तथाकथित श्रावक और उनके तथाकथित गुरुजन दोनों ही अपने अहम् और स्वार्थों के पोषण में लगे हैं । आज धर्म की खोज अन्तरात्मा में नहीं, भीड़ में हो रही है। हम भीड़ में रहकर अकेले रहना नहीं जानते, अपितु कहीं अपने अस्तित्व और अस्मिता को भी भीड़ में ही विसर्जित कर रहे हैं । आज वही साधु और श्रावक अधिक प्रतिष्ठित होता है जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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