Book Title: Mahavir ka Shravak Varg Tab aur Ab Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf View full book textPage 3
________________ व्यवस्था में गृहस्थ वर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान तो स्वीकार किया जाता है, किन्तु इन बदली हुई परिस्थितियों में चारित्र बल की अपेक्षा गृहस्थ का धन बल और सत्ताबल ही प्रमुख बन गया है। समाज में न तो आज चारित्रवान श्रावक साधकों और न ही विद्वत् वर्ग का ही कोई महत्त्वपूर्ण स्थान है। आज जैन धर्म की सभी शाखाओं में समाज पर, समाज पर ही क्या कहें, मुनिवर्ग पर भी धनबल और सत्ताबल का प्राधान्य है। महावीर के युग में और मध्यकाल में भी उन्हीं श्रावकों का समाज पर वर्चस्व था, जो संघीय हित के लिए तन-मन-धन से समर्पित होते थे। फिर वे चाहे सम्पत्तिशाली हों या आर्थिक अपेक्षा से निर्धन क्यों न हों। आज हम यह देखते हैं कि समाज के शीर्ष स्थानों पर वे ही लोग बैठे हुए हैं, जिनकी चारित्रिक निष्ठा पर अनेक प्रश्नचिन्ह लगे हुए हैं। सामान्यतया आज यह समझा जाता है कि मुनिजीवन की साधना गृहस्थ जीवन की साधना की अपेक्षा अधिक दुःसाध्य है किन्तु मेरा ऐसा मानना है कि साधना के क्षेत्र में श्रेष्ठता का आधार मुनिवेश या गृहस्थ वेश नहीं है। जैन धर्म की सम्पूर्ण साधना का हार्द ममत्व का त्याग कर समता या वीतरागता की साधना है। वह इन्द्रियों की विषय-वासना की मॉग पर संयम के विजय की साधना है। संन्यास मार्ग की साधना कठोर होते हुए सुसाध्य है, जबकि गृहस्थ धर्म की साधना सुसाध्य प्रतीत होते हुए भी दुःसाध्य है। चित्त विचलन के जो अवसर गृहस्थ जीवन में रहे हुए हैं, उनकी अपेक्षा मुनि जीवन में वे अत्यंत अल्प हैं । गिरिकंदराओं में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन उतना कठिन नहीं है जितना नारियों के मध्य रहकर उसका पालन करना है। क्या विजय सेठ और सेठानी के अथवा कोशा वैश्या के घर में चातुर्मास में स्थित स्थूलिभद्र के कठोर ब्रह्मचर्य की साधना की तुलना किसी अन्य मुनि के ब्रह्मचर्य की साधना से की जा सकती है? गृहस्थ धर्म से आध्यात्मिक विकास की ओर जानेवाला मार्ग फिसलन भरा है, उसमें कदम-कदम पर सजगता की आवश्यकता है, साधक यदि एक क्षण के लिए भी वासनाओं के आवेग से नहीं संभला तो उसका पतन हो सकता है। वासनाओं के बवंडर के मध्य रहते हुए उनसे अप्रभावित रहना सरल नहीं है। गृहस्थ जीवन में आध्यात्मिक साधना काजल की कोठरी में रहकर भी चारित्र रूपी चादर को बेदाग रखना है। मेरे यह सब कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि मैं मुनि जीवन की महत्ता और गरिमा को नकार रहा हूँ। एक मुनि जिन आध्यात्मिक उचाईयों को छूता है, यदि कोई गृहस्थ जीवन में रहकर भी उन उचाईयों को छु ले तो वह अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। वैसे तो हर युग के अन्दर इस प्रकार के गृहस्थ साधक रहे हैं, जिन्होंने अपनी चारित्रिक साधना के उच्चतम आदर्श उपस्थित किए हैं। वर्तमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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