Book Title: Mahavir ka Samaj Darshan
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

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Page 2
________________ ६ / संस्कृति और समाज : २७ है वहाँतक इन दलोंकी विचारधारा में प्रायः कुछ भी भेद नहीं है। रूसको साम्यवादी सरकारको नीतिमें मूलतः आर्थिक समानताको स्थान प्राप्त ही हैं परन्तु भिन्न-भिन्न देशोंकी समाजवादी सरकारें भी आर्थिक विषमताको दूर करनेकी दृष्टिसे ही उद्योग-धन्धोंका राष्ट्रीयकरण करनेकी ओर अग्रसर होती जा रही हैं। ___ यद्यपि वर्तमान विकासके युगमें मानवसमष्टिसे आर्थिक विषमताको नष्ट कर देना असम्भव नहीं है, परन्तु इतना निश्चित है कि केवल शासनतन्त्रकी कानूनी व्यवस्थाके आधारपर ही इसे नष्ट नहीं किया जा सकता । इसको नष्ट करनेके लिये कानुनी व्यवस्थाके साथ-साथ प्रत्येक मानवको अपने कर्तव्यको समझनेकी भी अनिवार्य आवश्यकता है। इसके बिना शासनतन्त्रकी विशुद्ध कानूनी व्यवस्था विल्कुल बेकार है । साम्यवादी रूसको पहले निश्चित किये गये अपने दृष्टिकोणमें अब इसलिये कुछ परिवर्तन करना पड़ा है और यही कारण है कि कानूनी विश्वके सभी देशोंमें प्रजातन्त्र अथवा राजतन्त्रके रूपमें स्थापित शासनतन्त्रके साथ-साथ धर्मतन्त्र की भी स्थापना की गयी है । भारतवर्षमें तो सामाजिक सुव्यवस्था शासनतन्त्रकी अपेक्षा धर्मसंघको ही अग्रिम स्थान मिला हुआ है । विश्वबन्ध महात्मा गांधीने विशुद्ध राजनीतिको नगण्य और तुच्छ मानते हुए विश्वके सामने और विशेषकर भारतवर्षके सामने धर्मतन्त्रकी महत्ताके इस आदर्शको पुनः स्थापित कर दिया है । तात्पर्य यह है कि साम्यवादी अथवा समाजवादी सरकारों द्वारा उद्योगधन्धोंका राष्ट्रीयकरण कर देनेके बाद भी मानवसमष्टिसे आर्थिक विषमताको दूर करने के लिये प्रत्येक व्यक्तिकी कुछ-न-कुछ जवाबदारी अवश्य ही शेष रह जाती है, जिसे व्यक्ति मानवसमष्टिके प्रति निश्चित किये गये अपने कर्त्तव्यज्ञान द्वारा ही पूरा कर सकता है और उसको इस प्रकारका कर्तव्यपना धर्मतन्त्रके द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। भगवान महावीरने धर्मतन्त्रकी महत्ताके इस तथ्यको भली प्रकार समझ लिया था, इसीलिये उन्होंने अपने युगकी सामाजिक दुर्व्यवस्थाको ठीक करनेके लिये अर्थात् मानवसमष्टिसे शोषक और शोष्यके भेदको नष्ट करनेके लिये धर्मतन्त्रके आधारपर प्रत्येक मानवको अपरिग्रहवादके अपनानेका उपदेश दिया था। इस सिद्धान्तके अनुसार आत्मार्थी लोकोत्तर महापुरुष साध-सन्त वगैरह आत्मकल्याणके उद्देश्यसे आध्यात्मिकताके उच्चतम शिखरपर पहुंचते हुए जहां परिग्रहका सर्वथा त्याग कर दिया करते थे वहां समाजके बीच में रहनेवाले गार्हस्थ्यमार्गके पथिक जन-साधारणके लिये उक्त अपरिग्रहवाद' के आधारपर 'अ-ईषत्-(अल्प), अर्थात् आवश्यकतानुसार परिग्रह रखनेकी छूट भी प्रदान की गयी थी और इसको भगवान महावीरकी धार्मिक परिभाषामें "परिग्रहपरिमाणव्रत" नाम दिया गया था। तात्पर्य यह है कि भगवान् महावीरका युग इस समय जैसा भौतिक विज्ञानका युग नहीं था, उस युगमें कोई भी उद्योगधन्धा कल-कारखानोंसे सम्बद्ध नहीं था, प्रत्येक उद्योग और प्रत्येक धन्धा केवल मनुष्यके । हस्तकौशलमें ही सीमित था। इसलिये एक तो इस प्रकारकी आर्थिक विषमता-"एक ओर तो करोड़ोंकी सम्पत्ति तिजोरियोंके अन्दर बन्द रहे और दूसरी ओर भूखे तथा नंगे नरकंगाल आम रास्तोंपर मारे-मारे फिरें; एक ओर पूंजीपति लोग हजारों मजदूरोंको अपना आर्थिक गुलाम बनाकर बिना परिश्रमके ही लाखों रुपया कमायें और दूसरी ओर मजदूर कड़ी-से-कड़ी-मेहनत करनेके बाद भी पौष्टिक भोजन, अच्छे वस्त्र और बच्चों की शिक्षाके साधन भी न जुटा पायें" उस समय न थी। दूसरे, उक्त परिग्रहपरिमाणवतके जरिये भगवान महावीरने प्रत्येक मानवको अपने पुरुषार्थसे पैदा किये गये द्रव्यका भी समष्टिके हितमें उपयोग करना सिखलाया था। भगवान महावीरने अहिंसावादके जरिये "सरोंको जीने दो" के प्रचारके साथ-साथ "अपरिग्रहवादके जरिये दूसरोंको जीवित रखनेका प्रयत्न भी करो" का भी प्रचार किया था। भगवान महावीर चूंकि परलोकको मानते थे इसलिये उन्होंने मानव समष्टिको अपरिग्रहवादकी ओर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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