Book Title: Mahavir ka Samaj Darshan Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 1
________________ भगवान महावीरका समाजदर्शन इसमें संदेह नहीं, कि वर्तमान युगमें जहाँ एक ओर मनुष्यकी आध्यात्मिक विचारधारा समाप्त हुई है वहीं दूसरी ओर विज्ञानकी भौतिक चकाचौंधमें बिलासता जीवनकी आवश्यकताओंका रूप धारण करके मनुष्यके सरपर नाचने लगी है। आज मनुष्यके लिये इतना ही वस नहीं है, कि पेट भरनेके लिए उसे खाना मिल जाय और तन ढकनेके लिये वस्त्र, किन्तु मनुष्यकी आवश्यकताओंके बढ़ जानेसे धोवीके रहनेकी झोपड़ी आज 'वाशिंग शाप' बनी हुई है, नाईकी बाल बनानेकी मामूली पेटीने 'हेयर कटिंग सैलून'का रूप धारण कर लिया है, दर्जी केवल दर्जी न रहकर 'टेलर मास्टर' कहे जाने लगे हैं और बजारू होटल तथा सिनेमा घर भी मनुष्यकी आवश्यकताओंकी पूर्ति करनेवाले ही माने जाने लगे हैं। आज साधारण-से-साधारण व्यक्तिके व्यक्तिके घर जाया जाय, तो वहाँ भी कम-से-कम बाल बनानेके लिए एक रेज़र, नहानेके लिए बढ़िया साबुन, बाल सवारनेके लिये सुगन्धित तेलकी शीशी, कंघा और दर्पण, चाय पीनेके लिये कप-रकाबी और बाजार में घूमते समय हाथमें लेने के लिए अच्छी लम्बी-चौड़ी बेटरी आदि चीजें अवश्य ही देखनेको मिलेंगी। इसके अतिरिक्त प्रत्येक मनुष्यके अन्तःकरणमें सुन्दर विलास-भवन, बिजलीकी रोशनी, बिजलीके पंखे, हारमोनियम, ग्रामोफ़ोन, रेडियो, टीबी, रेफ्रिजरेटर, मोटर आदि विलासकी सैकड़ों चीजें पानेकी कल्पनायें निर्वाध गतिसे अपना स्थान बनाती जा रही हैं। __मनुष्यकी उक्त आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिए अटूट पैसेकी आवश्यकता है । जिस मनुष्यके पास जितना अधिक पैसा होगा वह मनुष्य विलासको उतनी ही अधिक सामग्री आवश्यकताके नामपर संग्रहीत कर सकता है। यही कारण है कि प्रत्येक मनुष्यकी दृष्टि न्याय और अन्यायका भेदरहित छल-बल आदि साधनों द्वारा पैसा संग्रह करनेकी ओर ही झुकी हुई है । भिखारी, मजदूर, किसान, जमींदार, साहूकार, मुनीम, क्लर्क, आफीसर, व्यापारी, राजा, पुजारी, शिक्षक, धर्मोपदेशक, धर्मपालक और साधु-सन्त आदि किसीको भी आज इस दृष्टिका अपवाद नहीं माना जा सकता। गत द्वितीय महायुद्धने तो प्रत्येक मनुष्यकी उक्त दृष्टिको और भी कठोर बना दिया है, जिसके परिणामस्वरूप आज मानवसमष्टि बिलकूल अस्त-व्यस्त हो चुकी है और कोई भी व्यक्ति अपनेको सुखी अनुभव नहीं कर रहा है। पैसा संग्रह करनेकी भावनाने ही मानवसमाजमें जबर्दस्त आर्थिक विषमता उत्पन्न कर दी है, क्योंकि पैसा कमानेके बड़े-बड़े साधन पैसे के बलपर ही खड़े किये जा सकते हैं; इसलिए सम्पत्तिके उत्पादनमें पैसेको ही महत्त्वपूर्ण साधन मान लिया गया है और परिश्रमका इस विषयमें कुछ भी मूल्य नहीं रह गया है। यही कारण है कि जिन लोगोंके पास पैसा है उन लोगोंने पैसा कमानेके बड़े-बड़े साधन खड़े कर लिये हैं और उन साधनोंके जरिये वे विश्वको समस्त सम्पत्तिको केवल अपने पास ही संग्रहीत कर लेनेके प्रयत्नमें लगे हुए हैं। इस प्रकार एक ओर जहाँ पैसे वालोंके खजाने दिन-प्रतिदित बिना परिश्रमके भरते चले जा रहे है वहाँ दूसरी ओर उनके इस कार्य में अपने खून और पसीनाको एक कर देनेवाले मजदूर पेट भरनेको भोजन और तन ढकनेको वस्त्र तक पानेके लिये तरसा करते हैं। मानवसमष्टिको भस्मसात कर देनेवाली वर्तमान विषम परिस्थितिसे आजके विचारशील लोगोंके मस्तिष्कमें विचारोंकी क्रांति उत्पन्न कर दी है और उस परिस्थितिका खात्मा करने के लिये साम्यवादी और समाजवादी आदि भिन्न-भिन्न दल कायम हो चुके हैं और होते जा रहे हैं । ये सभी दल अपने-अपने दृष्टिकोणके आधारपर मानवसमष्टिकी बर्तमान विषय परिस्थितिका शीघ्र ही अन्त कर देना चाहते है । उक्त दलोंके दरम्यान नीतिसम्बन्धी मतभेद कितने ही क्यों न हों, फिर भी जहाँतक मानवसमष्टिकी वर्तमान आर्थिक विषमताका सवाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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