Book Title: Mahavir dwara Pracharit Adhyatmik Ganrajya aur uski Parampar Author(s): Badriprasad Pancholi Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 3
________________ Jain Educ ६४८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : तृतीय अध्याय भारतीय साहित्य का रक्षण भी ऐसे ही गणों में हुआ है. दक्षिण में 'संघम' परम्परा द्वारा तमिल साहित्य की अभिवृद्धि हुई है. ये भी सारस्वतगण ही कहे जा सकते हैं. राज्य के आवश्यक अंग प्रभुसत्ता संभूयभावना (Civic Sense ) और तंत्र ( व्यवस्था ) के दर्शन इन शैक्षणिक संस्थाओं में होते हैं. इसीलिए इन्हें गणराज्य कहना उपयुक्त है. तक्षशिला, नालन्दा आदि प्रसिद्ध विद्या केन्द्र भी गणतांत्रिक आदर्श पर संघटित हुए थे. भारत के पश्चिमी द्वार की अर्गला खोल कर आक्रान्ता सिकन्दर का स्वागत करने वाला आम्भीक तक्षशिला के विद्रोही आचार्य चाणक्य या चन्द्रगुप्तादि छात्रों को, जो प्रत्यक्ष रूप में गान्धारनरेश की नीति का विरोध कर रहे थे, पकड़ नहीं सकता था. दुष्यन्त वैखानसों से यह सूचना मिलने पर आश्रममृगोऽयं राजन् ! न हन्तव्यो न हन्तव्यः आखेट से उपरत होकर आश्रम की प्रभुसत्ता के सम्मान में रथ से उतर गया था. राज्यों में राजा स्वयं विद्वत्सभाओं की योजना करते थे जिन्हें प्रभुसत्ता के अभाव के कारण स्वायत्तसंस्था ही कहा जा सकता है, गणराज्य नहीं. ऋग्वेद में मरुतों के देवगण का विस्तार से उल्लेख मिलता है. मरुतों की संख्या ४६ है. यजुर्वेद में इनके नाम भी मिलते है ये सब एक ही पिता रुद्र के पुत्र हैं बाएँ इनकी प्रभूत समृद्धि की योतक है. अतः इनको 'पृश्निमातरः " या गोमातरः * विशेषण भी दिये गए हैं. ये सब भाई हैं, न इनमें कोई ज्येष्ठ है न कनिष्ठ. ये सब समान विचार वाले हैं और एक ही तरह से इनका पोषण हुआ है. इनकी पैतृकपरम्परा [ योनि ] व नीड भी समान हैं. 5 वे उत्तम पत्नियों वाले (भद्रजानयः ) ६ हैं, प्रतिभाशाली हैं स्वयंदीप्त हैं, रथों पर चलते हैं 1 अपरिमित शक्ति से सम्पन्न हैं " " और बच्चों की तरह 0 क्रीडालु हैं, मरुतों का एक अन्य विशेषण सिन्धुमातरः १३ है. १२ मरुतों का कार्य वही है जो देवराज इन्द्र, अग्रणी अग्नि या सम्राट् वरुण का है. मरुतों के कार्य इन्द्रिय [इन्द्र के] १४ व इन्द्र के कार्य मरुतों के [ मरुत्वती ] १५ कहे गए हैं. मरुत् दिव्यगायक हैं अपने गान द्वारा ही वे पर्वतों का भेदन करते हैं" और इन्द्र की शत्रुविजय की सामर्थ्य बढ़ा देते हैं. पुराणों से पता चलता है कि इन्द्र और मरुत् एक दूसरे के विरोधी भी रहे हैं. ऋग्वेद के एक मंत्र से इस वैमनस्य की सूचना मिलती है. तैत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार मरुतों १. यजुर्वेद १७८०-८५. २. ऋग्वेद ८२०२, ५/५७ १ ५/५२/१६, ५ ६० ५. ३. ऋग्वेद ५५७ २, ३५६/६ १८५/२, ११२३/१०, ७, ८७ ३ ६ ३४१५. ४. ऋग्वेद १८५३, ५. ऋग्वेद ५५६६, ५ ६० ५. ६. ऋग्वेद ८/२०११. ७. ऋग्वेद ७/५८११. ८. ऋग्वेद १।१६५/१, ७/५६ १. ६. ऋग्वेद ५६१/४. १०. ऋग्वेद १८८१, ५/५७१, ११. ऋग्वेद ५५८२, १/१६७/६. १२. ऋग्वेद १।१६६/२, ७५६/१६. १३. ऋग्वेद १०/७८ ६. १४. ऋग्वेद १८५/२. १५. ऋग्वेद ११८०४. १६. ऋग्वेद ५६०१८ ७ ३५६ ५५७ ५. १७. ऋग्वेद १८५/१०. १८. ऋग्वेद ५/३०१६, १८५/२५ २६ २ १ २६५/११ १ १०० १०. १९. ऋग्वेद ११७० २. www.jamendrary.orgPage Navigation
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