Book Title: Mahavir dwara Pracharit Adhyatmik Ganrajya aur uski Parampar Author(s): Badriprasad Pancholi Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 8
________________ बद्रीप्रसाद पंचोली: महावीर द्वारा प्रचारित आध्यात्मिक गणराज्य और उसकी परम्परा : 653 महावीर ने अपने जीवनकाल में ही जैन-शासन को अधिक लोक प्रिय बनाने के लिए अपने प्रमुख 11 शिष्यों को गणधर नियुक्त किया. ये जैन-शासन के सर्वोच्च व्याख्याता थे. इन्होंने 6 गणों को जैनशासन का उपदेश दिया. इन 11 गणधरों तथा महावीर स्वामी की वाणी का संकलन सिद्धान्त कहलाता है. महावीर के निर्वाण के उपरान्त जैनसंघ के प्रमुख सुधर्मा बने. इनके बाद जम्बू स्वामी गणप्रमुख बने. 3 गणप्रमुख और हुए. लगभग 150 वर्षों के सुदीर्घ काल में जैन संघ में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं हुई. अन्तिम नन्दराजा के समय जैनसंघ के दो प्रमुख सम्भूतिविजय और भद्रबाहु हुए. इन दोनों ने जैन सिद्धान्तों का संकलन किया. जैनसंघ की प्रारम्भिक सफलता का कारण समकालीन गणराज्यों में पनपने वाली गणभावना तो थी ही, साथ ही जैन आचार्यों का उदार व उदात्त व्यक्तित्व भी था. नैतिकता पर आश्रित गणव्यवस्था अधिक से अधिकतर रुचिकर होती गई थी. कालान्तर में जैनसंघ का कार्यक्षेत्र तो बढ़ता गया परन्तु सेवाभावी, उदात्तव्यक्तित्व वाले आचार्यों की संख्या कम होती गई. संघभेद के कारण विभिन्न सम्प्रदायों में स्पर्धा बढ़ती गई और प्रचारकार्य कम हो गया. गणराज्य समाप्त हो गए. मौर्य व गुप्त शासकों के युग में राजतन्त्र की सफलता देख कर गणों पर से लोकविश्वास उठता गया. जैनसंघ के लोगों में उद्देश्य गौण हो गया. जिस मानवतावादी दृष्टिकोण को लेकर आध्यात्मिकगण की स्थापना महावीर ने की थी, उसी दृट्टिकोण से परिवर्तित रूप में विकसित होने वाले ब्राह्मणधर्म से सहयोग करने को जैनसंघ तैयार न था. यद्यपि हेमचन्द्र जैसे उदार विचारक अर्हत्, शिव, बुद्ध, ब्रह्म व विष्णु में अभेद दर्शन करते थे. जिनप्रभसूरि जैसे विद्वान् 'गायत्रीरहस्य' जैसे भाष्य लिखते थे, आदिजिन की पूजा के लिए वैदिकमंत्र ग्रहण किये जा रहे थे. सरस्वती की श्रुतदेवी के नाम से उपासना की जा रही थी, परन्तु पारस्परिक स्पर्धा कटुता में बदलती जा रही थी. पहले श्रावक के रूप में कोई भी जैनमन्दिर में जा सकता था, परन्तु अब ब्राह्मण-धर्मावलम्बी 'न गच्छेत् जैनमन्दिरम्' का नारा बुलन्द करने लगे. इन सब बातों को जैनसंघ की अवनति के कारणों के रूप में उपस्थित किया जा सकता है. आधुनिक काल में भी जनसंघ विभाजित है. अब जैन विद्वान् अपने आपको अहिन्दू कहने में गर्व अनुभव करते हैं. पिछली जनगणना में जैनों को हिन्दुओं से पृथक् लिखा गया है. महावीर के तपोमार्ग तथा आर्यमार्ग को किन्हीं अनार्यपरम्पराओं का अवशेष सिद्ध किया जा रहा है. महावीर आर्यदर्शन से दूर रहने वाले अनार्यों की निन्दा करते थे, श्रमण, ब्राह्मण, भिक्षु या निर्ग्रन्थ में कोई भेद नहीं मानते थे.५ उन्होंने अपने मार्ग को सत्पुरुष आर्यों द्वारा पूर्व व्याख्यात कहा है.६ किन्तु विद्वान् पारस्परिक कटुता को जन्म देने वाली भेदकारी नीति से कब परिचित होंगे कहा नहीं जा सकता. महावीर द्वारा प्रचारित परम्परा को 'पनपी और अवगति को प्राप्त हुई' इतना ही महत्त्व नहीं है. उससे विगत दो सहस्राब्दियों के भारत के सबसे बड़े लोकनायक आचार्य शंकर ने प्रेरणा लेकर, सारे भारत की एक इकाई के रूप में कल्पना करके आध्यात्मिक गणराज्य की भावना को और आगे बढ़ाया. उन्होंने भारत के चारों कोनों में चार मठों की स्थापना करके धार्मिक दृष्टि से भारत का संगठन किया. थोथे मतों को उखाड़ फेंका. आचार्य शंकर के इन प्रयत्नों का ही फल था कि एक सहस्राब्द के विदेशी शासन में भी भारत ने सांस्कृतिक दृष्टि से किसी न किसी रूप में अपने गौरव को सुरक्षित बनाए रक्खा. दीवारों में चुन जाने वाले, शिखा के पहले शिर कटा देने वाले वीरों को स्फूर्ति प्रदान करने का श्रेय शंकराचार्य की धार्मिक गणपरम्परा को है, और इसीलिए इसका श्रेय अप्रत्यक्ष रूप से महावीर स्वामी को भी प्राप्त है. स्वतन्त्र भारतीय गणराज्य को भी महावीर की आध्यात्मिक गणपरम्परा से प्रेरणा प्राप्त होती रहेगी. 1. यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो, बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः / ____ अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः, सोऽयं वो विदधातु वांछितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः / / 2. ओं चत्वारः शृंगा त्रयोऽस्यपादा द्वे शीर्षे सप्तहस्तास्त्रिधा बद्धो वृषभो रौति महादेवो मत्यं आवेशय स्वाहा-Jain Konography में पृ०६६ पर प्रतिष्ठासारसंग्रह से उद्धत. 3. सत्रकृतांगसूत्र 1 / 3 / 4. 4. उपर्युक्त 2 / 5 / 18. 5. उपर्युक्त 1 / 16 / 1. 6. उपर्युक्त 25 // 13. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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