Book Title: Mahavir aur Malavpati Dasharnabhadra Author(s): Bhaskar Muni Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 4
________________ 282 मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ विनम्र एवं लघु प्रार्थना है ताकि भगवतचरणाश्रय से जीवन का उद्धार कर सकू। शक्रन्द्र और सारी जनता की निगाह एकदम नप की विरागता पर थी। कहाँ तो भोग-ऐश्वर्य के पिपासु और कहाँ योगेश्वर बनने के लिए इतनी दृढ़ विरतता! ___ अरे ! इसी को कहते हैं 'गुदड़ी के लाल ने कर दिया कमाल / ' जनता अचरज करती हुई दशार्णभद्र के आदर्श त्याग-वैराग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगी। शीघ्र ही प्रभु ने नप दशार्णभद्र को आहती दीक्षा प्रदान की। दशार्णभद्र नप अब मुनि के पद पर आसीन हुए। जनता के हजारों मस्तक श्रद्धा भक्ति से मुनि दशार्णभद्र के पद-पंकज में झक गये। इन्द्र ने भी अपना मस्तक नवाया। पूर्व अवहेलना एक अपमान की क्षमा याचना माँगी और बोला-"मुनीश्वर ! आपके आदर्श व महा मूल्यवान इस वेष की तुलना में मैं तथा मेरा समस्त वैभव तुच्छ है, कुछ भी समानता नहीं कर सकता। आप आध्यात्मिक तत्वों के धनी हैं, पुजारी एवं साधक हैं, जबकि हम तो भौतिक सुखों के दास हैं, भोगों में ही भटक रहे हैं। यह अद्वितीय घटना इतिहास में अमर रहेगी। मुने ! आपका स्वाभिमान-शाश्वत है। उसको कोई भी शक्ति क्षीण नहीं कर सकती है।" ऐसा कहता हुआ इन्द्र अधिक स्तुति करता हुआ चला गया। 1 दसण्णरज्जं मुइयं, चइत्ताणं मुणी चरे। दसण्णभद्दो निक्खंतो, सक्खं सक्केण चोइओ // Jain Education International For Private & Personal Use Only (उत्तरा० 1844) www.jainelibrary.orgPage Navigation
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