Book Title: Mahavir Vinanti Author(s): Mehulprabhsagar Publisher: Mehulprabhsagar View full book textPage 2
________________ GAORPORARY MORADATEMPORARY कर्ता परिचय समुच्चय सहित अनेक ग्रंथ प्राप्त होते हैं। उपाध्याय जयसागरजी महाराज खरतरगच्छाचार्य गेय रचनाओं में गिरनार, खंभात, मांडवगढ, श्री जिनराजसूरीश्वरजी महाराज के सुशिष्य थे। इनका शखश्वर, मरुकाट, नागद्रह, जारापल्ला, नगरकाट्ट सहित आचार्य पद काल वि.सं. 1433 से 1461 तक का है। विविध चैत्यपरिपाटी स्तव, नानाविध विनती स्तवन, अत: उसी समय आपकी दीक्षा उनके कर-कमलों से जिनकुशलसूरि सप्ततिका, वयरस्वामी रास, गौतमस्वामी संपन्न हई। संवत 1475 में श्रतसंरक्षक आचार्यों में चतुष्पदिका, नेमिनाथ विवाहलो, अर्बुद तीर्थ विज्ञप्ति, मुर्धन्य श्री जिनभद्रसूरीश्वरजी महाराज ने आपको पंचवर्गपरिहार पार्श्व स्तोत्र सहित पचासों रचनाओं से आपने उपाध्याय पद से विभूषित किया। साहित्य को समृद्ध किया। आप सुकवि, गीतार्थ, प्रभावक थे। लक्षण संघपति अभयचंद्र के निकाले हए यात्रासंघ के साथ साहित्य के आप विद्वान थे। संवत 1503 पालनपर में आपने मरुकोट महातीर्थ की यात्रा की। फरीदपर नगर में रचित पृथ्वीचंद्र चरित में आपने अपनी दीक्षा, विद्या आपने कई ब्रह्म-क्षत्रियों को जैन बनाया, सिंधु-पंजाब आदि और पददाता गुरुओं का उल्लेख किया है प्रदेशों में जैन धर्म का प्रसार, अप्रसिद्ध तीर्थ इत्यादि अनेक वृत्तांत से गुंफित विस्तृत वर्णन वाला पत्र विज्ञप्ति त्रिवेणी के तत्पट्टशाद्वलवक्षःस्थलकौस्तुभसन्निभः। नाम से रचकर संवत् 1484 माघ सदि 10 को आचार्य श्रीजिनराजसूरीन्द्रो योऽभूद्दीक्षागुरु मम।।3।। जिनभद्रसूरिजी महाराज को भेजा था। जो प्रकाशित है। तदनु च श्रीजिनवर्द्धनसूरिः श्रीमानुदैदुदारमनाः। तत्कालीन अनेक नगरों और तीर्थों के नाम इस पत्र में प्राप्त होते हैं। लक्षणसाहित्यादिग्रन्थेषु गुरु मम प्रथितः।।4।। आचार्य श्री जिनभद्रसूरिजी महाराज के श्रुतसंरक्षण के श्रीजिनभद्रमुनीन्द्रा: खरतरगणगगनपूर्णचन्द्रमसः। भगीरथ कार्य में उपाध्याय जयसागरजी महाराज का भी पूरा ते चोपाध्यायपदप्रदानतो मे परमपूज्या:।।5।। सहयोग रहा था। आपकी गृहस्थ अवस्था का परिचय अर्बुद आपकी शिष्य परंपरा विशाल रही है। शिष्यों में प्राचीन जैन लेख संदोह भाग-2 के शिलालेख क्रमांक मेघराज गणी. सोमकंजर. रत्नचंद्रोपाध्याय आदि नाम 442,449, 455,456, 457 और पाटण जैन धातु सविख्यात हैं। शिष्य परंपरा में भक्तिलाभोपाध्याय, पाठक प्रतिमा लेख संग्रह के शिलालेख क्रमांक 552 के चारित्रसार, ज्ञानविमलोपाध्याय, श्रीवल्लभोपाध्याय आदि अनसार ओसवाल दरडा गोत्रीय संघपति खीमसिंह के अनेक विद्वान हुए हैं। पुत्र हरिपाल की पत्नी सीता के पुत्र आसराज की भार्या सोषू के आप पुत्र थे। संघपति मंडलिक जिसने आबु प्रति परिचय महातीर्थ पर खरतरवसही नामक जैन मंदिर का निर्माण श्री महावीर विनती स्तवन नामक हस्तलिखित कृति करवाया, वे आपके गृहस्थावस्था के भाई थे। की प्रतिलिपि पंडित प्रवर डॉ. जितेन्द्रभाई बी. शाह के द्वारा लेखांक 455 द्रष्टव्य है लालभाई दलपतभाई भारतीय विद्या मंदिर अहमदाबाद से || सं० 1515 वर्षे आषाढ वदि 1 शुक्रे प्राप्त हुई है। एतदर्थ वे साधुवादाह हैं। पूज्यश्री पुण्यविजयजी श्रीअर्बुदगिरिमहातीर्थे ..... तत्पुत्र हरिपाल भा० सीतादे संग्रह के प्रति क्रमांक 3420 में पूज्य जयसागरजी महाराज पुत्र सा० आसराज भार्या सोषू तत्पुत्र की अनेक रचनाओं का पडिमात्रा में सुवाच्य अक्षरों व मध्य श्रीजयसागरोपाध्यायबांधवेन संघाधिपतिमंडलिकेन ..... वापिका के साथ लेखन किया हुआ है। प्रति का प्रथम पत्र परिवारसहितेन श्रीनवफण पार्श्वनाथबिंब कारितं एवं दस के बाद के पत्र संभवतः अनुपलब्ध हैं। प्रति लेखक प्रतिष्ठितं श्रीखरतरगच्छाधीश्वर श्रीजिनभद्रसूरि- विद्वान मुनिराज रहे होंगे। लेखन प्रायः पंद्रहवीं या सोलहवीं पट्टालंकार श्रीजिनचंद्रसूरिभिः।। शताब्दी का प्रतीत होता है। उपरोक्त प्रति के पत्र संख्या 6 __ आपके द्वारा रचित संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश पर यह कति लिखित है। खरतरगच्छ साहित्य कोश में इस और मरुगुर्जर भाषा में अनेक कृतियां प्राप्त होती है। कृति का उल्लेख संख्या 2064 पर है। जिनमें सं.1478 में पाटण में रचित पर्वरत्नावली, संदेह जयसागरोपाध्याय विरचिता दोहावली टीका, गुरुपारतंत्र्य वृत्ति, उपसर्गहर वृत्ति, श्री महावीर विनती भावारिवारण वृत्ति, नेमिजिन स्तुति टीका, उक्ति जय जय वीर जिणेसर देव, जहाज मन्दिर • अप्रेल - 2017 |12Page Navigation
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