Book Title: Mahakavi Dhanpal Vyaktitva evam Krutitva Author(s): Harindrabhushan Jain Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf View full book textPage 7
________________ महाकवि धनपाल : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १११ ३-कादम्बरी के वर्णन-प्रधान होने के कारण उसमें प्रत्येक वर्णन के उचित विशेषणों के गन्वेषण में व्यस्त बाणभट्ट ने कहीं कहीं पर शब्द-सौन्दर्य की उपेक्षा की है, जबकि तिलकमञ्जरी में सर्वोतोमुख काव्योत्कर्ष उत्पन्न करने के इच्छुक धनपाल ने परिसंख्यादि अलंकार वाले स्थलों में भी प्रत्येक पद में शब्दालकार का उचित समावेश किया है। जैसे अयोध्यावर्गन के प्रसंग में 'उच्चापशब्द शत्र संहारे, न वस्तु विचारे । गुरूवितीर्ण शासनो भक्त्या, न प्रभुशक्त्या । वृद्धत्यागशीलो विवेकेन, प्रजोत्सेकेन । अवनितापहारी पालनेन, न लालनेन। अकृतकारुण्यः करचरणे, न शरणे।' यहां श्लेषानुप्राणितपरिसंख्यालंकार में भी प्रत्येक वाक्य में अन्त्यानुप्रास सुशोभित है। इसी प्रकार 'सतारकावर्ष इव बेतालदृष्टिभिः, सोल्कापात इव निशितप्रासवृष्टिभि:' यहां युद्ध स्थल के वर्णन में उत्प्रेक्षा के साथ भी।। 'त्रातचतुराश्रमः' इस प्रवेक्ति विरोधाभास के इसी प्रकार 'सगरान्वयप्रभवोपि....... साथ भी। इसी प्रकार, वैताढय गिरि के वर्णन में-'मेरुकल्पपादपाली-परिगतमपि न मेरुकल्पपादपालीपरिगतम्, वनगजालीसंकुलमपि न वनगजालीसकुलम्' यहां विरोधाभास के साथ यमक भी। इसी प्रकार. मेघवाहन राजा के वर्णन में 'दृष्ट्वा वैरस्य वैरस्यमुज्झितास्रो रिपुवजः । यस्मिन् विश्वस्य विश्वस्य कुलस्य कुशलंव्यधात् ।' अतिशयोक्ति के साथ यमक भी। ४-तिलकमञ्जरी में, सर्वत्र श्रुत्यनुप्रास के द्वारा सुश्रव्यता उत्पन्न की गई है। ५-कादम्बरी में अन्य स्थानों पर उपलब्ध हो शब्द बार बार सुनाई पड़ते हैं किन्तु तिलकमञ्जरी में 'तनीमेण्ठ-लञ्चा-लाकुटिक-लयनिका-गल्वर्क' प्रभृति अश्रु तपूर्व एवं अपूर्व शब्दों के प्रयोग से कवि ने विशेष चमत्कार उत्पन्न किया है। धनपाल ने, तिलकमञ्जरी के प्रारम्भिक सत्रह पद्यों में कवि-प्रशस्ति लिखी है। इसमें जिन कवियों तथा रचनामों की प्रशंसा की गई है वे निम्न प्रकार हैं 'रघवंश और कौरववंश की वर्णना के आदिकवि वाल्मीकि एवं व्यास, कथा साहित्य की मूल जननी 'वृहत कथा', वाङमय वारिधि के सेतु के समान 'सेतुबन्ध' महाकाव्य के निर्माण से लब्धकीति प्रवरसेन, स्वर्ग और पृथ्वी (गाम्) को पवित्र करने वाले गंगा के समान पाठक की वाणी (गाम् ) को पवित्र करने वाली, पादलिप्त सूरि की 'तरंगवती कथा, प्राकृत-रचना के द्वारा रस वर्षाने वाले महाकवि जीवदेव, अपने काव्य-वैभव से अन्य कवियों की वाणी को म्लान कर देने वाले कालिदास, अपने काव्य-प्रतिभा रूप वाण से (अपने पुत्र पुलिन्द के साथ) कवियों को विमद करने वाले तथा कादम्बरी और हर्ष चरित की रचना से लब्धख्याति बाण, माघमास के समान कपिरूप कवियों को पद रचना (कपि के पक्ष में पैर बढ़ाना) में अनुत्साह उत्पन्न करने वाले महाकवि माघ, सूर्य रश्मि (भा-रवि) जैसे प्रतापवान् कवि भारवि, प्रशमरस की अद्भुत रचना समरादित्य-कथा' के प्रणेता हरिभद्रसूरि, अपने नाटकों में सरस्वती को नटी के समान नचाने वाले कवि भवभूति, 'गौडवध' की रचना से कवि जनों की बुद्धि में भय पैदा करने वाले कवि वाक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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