Book Title: Mahakavi Dhanpal Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf

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Page 10
________________ डा० हरीन्द्र भूषण जैन I धनपाल महान् गुणाग्राही थे । अनेक अवसरों पर भोजराज को भिड़कियां देकर सावधान करते रहने के प्रतिरिक्त उन्होंने अनेक बार उनके गुणों की प्रशंसा भी की है अभ्युद्धृता वसुमती दलितं रिपूर:, क्रोडीकृता बलवता बलिराजलक्ष्मीः । एकत्र जन्मनि कृतं तदनेन यूना, जन्मत्रये यदकरोत् पुरुषः पुराणः ॥ अर्थात् - इसने अपने जन्म में पृथ्वी का उद्वार किया, शत्रुनों के वक्षस्थल को विदीर्ण किया और अनेक बलशाली राजाश्रों की राजलक्ष्मी ( विष्णु के पक्ष में बलि नामक राजा की राजलक्ष्मी) को आत्मसात् किया । इस प्रकार इस युवक ने वे काम एक ही जन्म में कर डाले जो पुराण पुरुष विष्णु ने तीन जन्मों में किए थे। कहा जाता है कि भोजराज ने इस पद को सुनकर धनपाल को एक स्वर्ण कलश भेंट किया था । " ११४ तिलकमञ्जरी को अग्नि में स्वाहा कर देने के कारण धनपाल, भोजराज से रूठकर, धारा नगरी को छोड़ अन्यत्र चल दिए। कुछ दिनों के पश्चात् उनकी दशा अत्यन्त दयनीय हो गयी । भोज ने उन्हें पुनः सादर निमंत्रित किया और उनसे कुशलक्षेम पूछा। धनपाल ने निवेदन किया पृथुकार्तस्वरपात्र भूषितनिःशेष परिजन देव । विलसत्करेणुगहनं सम्प्रति सममानयोः सदनम् ।।' अर्थात् - हे राजन् ! इस समय हमारा और आपका घर बिल्कुल समान है, क्योंकि दोनों ही 'पृथु कार्तस्वरपात्र' ( गम्भीर आर्तनाद का पात्र तथा विपुल स्वर्ण पात्र वाला) है, दोनों ही - 'भूषितनिःशेपरिजन' है ( अलंकारहीन परिजन वाला तथा जिसके सारे परिजन श्राभूषणों से युक्त है) और दोनों ही 'विलसत्क रेगुगहन' ( धूलिपूर्ण और हाथियों से सुसज्जित ) है । यह श्लोक श्लेषालंकार के प्रत्यन्त सुन्दर उदाहरण के रूप में आज भी विद्वज्जनों में पर्याप्त प्रसिद्ध है । साथ ही यह धनपाल के स्वाभिमान की ओर पूर्ण संकेत करता है | २ भोजराज ने सरस्वती कण्ठाभररण में लिखा है - 'यादग्गद्य विधौ बारणः पद्यवन्धे न तादृशः' अर्थात् बाण, जितना गद्य बनाने में कुशल है इतना पद्य बनाने में नहीं । धनपाल की यह विशेषता है कि वे समान रूप से गद्य और पद्य दोनों की प्रौढ़ रचना करने में समर्थ थे । हेमचन्द्र ने अपनी श्रभिधान चिन्तामणि, काव्यानुशासन और छन्दोऽनुशासन में धनपाल के अनेक सुन्दर पद्यों का उल्लेख किया है । १४ वीं शताब्दी की रचना (सूक्तिसङ्कलन ) 'शाङ्गधरपद्धति' में धनपाल की अनेक सूक्तियों का उल्लेख है । इसी प्रकार मुनि सुन्दरमूरि ने 'उपदेश रत्नाकर' में और वाग्भट्ट ने अपने 'काव्यानुशासन' में अनेक स्थानों पर धनपाल के पद्यों का उल्लेख किया है । 'कीर्तिकौमुदी' एवं 'अमर चरित' के रचयिता मुनि रत्न सूरि और 'पञ्चलिङ्गी प्रकरण' के कर्ता श्री जिनेन्द्रसूरि ने धनपाल के काव्य की प्रशस्ति गाई है । ४ १ - प्रबन्ध चिन्तामरिण ( महाकवि धनपाल प्रबन्ध ) २ - प्रबन्ध चिन्तामणि ( महाकवि धनपाल प्रबन्ध ) ३ - डा० जगदीशचन्द्र जैन -- प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ६५५. ४- तिलक मञ्जरी पराग० प्रस्तावना पृ० २८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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