Book Title: Madhyamik shiksha aur Sarkar Drushti
Author(s): Sushma Arora
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 4
________________ ३६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड जैसे ही सरकार बदलती है, शिक्षा सम्बन्धी नीति में परिवर्तन कर दिया जाता है। इस प्रकार कोई शिक्षा-नीति लागू भी नही हो पाती और उस पर व्यय किये गये लाखों रुपये बर्बाद हो जाते हैं। सन् १९७६ में शिक्षा को राज्य-सूची से हटाकर समवर्ती सूची में सम्मिलित किया गया, इस डांवाडोल नीति के कारण शिक्षा की स्थिति निरन्तर दयनीय होती जा रही है। माध्यमिक शिक्षा की एक विडम्बना यह है कि एक युवक १६ वर्ष की आयु में माध्यमिक शिक्षा पूर्ण कर लेता है, जबकि सरकारी नौकरी प्राप्त करने की न्यूनतम आयु १८ वर्ष रखी गयी है, ऐसी स्थिति में दो वर्ष तक वह छात्र क्या करे? विवश हो उसे विश्वविद्यालय में प्रवेश लेना पड़ता है और जब उच्च शिक्षा प्राप्त करके लौटता है तो स्वयं को अत्यन्त असहाय व बेकारी की अवस्था में पाता है । अब भी वह उसी नौकरी को अत्यन्त कठिनाई से पाता है, जो उसे माध्यमिक शिक्षा के बाद मिल जानी चाहिए थी। हमारी शिक्षा की एक अन्य बड़ी कमी उसका पुस्तकीय होना है। हमारा सारा पाठ्यक्रम केवल पाठ्यपुस्तकों में सिमटा हुआ है। कीट्स ने अपनी एक कविता में यह विचार व्यक्त किये थे कि अपूर्ण पूर्ण से अच्छा है ताकि हम कुछ पाने का प्रयास करते रहें। लेकिन हमारी पाठ्य-पुस्तकों में उस सामग्री या अन्य स्रोतों का संकेत कहीं भी नहीं मिलता है जहाँ उसके विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त की जा सके। ऐसी स्थिति में छात्र पाठ्यपुस्तकों में सिमटे सीमित ज्ञान को पूर्ण मानकर एक भ्रमपूर्ण स्थिति में जीते हैं। हमारी शिक्षा के बारे में सदैव यह कहा जाता है कि यह केवल सैद्धान्तिक है, व्यवहारिक नहीं। एक शिक्षित व्यक्ति भी उन सिद्धान्तों को जिनका उसने अध्ययन किया है व्यवहार में परिणत नहीं कर पाता है, क्योंकि शिक्षा मन्त्रोच्चारण अथवा शुकपाठ की तरह बनी रही और डिग्रीधारी युवक उसे शुकपाठ की तरह ही गले उतारते गये। आज जब शिक्षा को व्यावहारिक रूप प्रदान करने की आवश्यकता हमें अनुभव हुई, उसके लिए अनेक योजनाएँ बनायी गयीं, लेकिन उन्हें लागू करने में अनेक सीमाएँ बाधक सिद्ध हुईं। पहली सीमा थी-संलग्न व्यक्तियों की प्रभाहीनता। सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप देने के लिए उन व्यक्तियों को पदासीन किया गया, जिनके पास मोटे चमकदार प्रमाण-पत्र तो थे, पर व्यावहारिक अनुभव नहीं थे। ये पदाधिकारी तोता-शैली में सिद्धान्त-पाठ तो कर सकते थे, पर किसी भी सिद्धान्त को आचरण की सही शक्ल नहीं दे सकते थे। दूसरी कमी रही--परिवेश से अपरिचय की । व्यावहारिक नीतियाँ इतनी कल्पनाशील रहीं कि कृषि-प्रधान प्रदेश में संगीत और सिलाई की शिक्षा के केन्द्र बनाती रहीं और औद्योगिक नगरों में कृषि सम्बन्धी ज्ञान का प्रचार करती रहीं। यही कारण है कि स्वातन्त्र्योपरान्त शिक्षा, जीवन से सम्बद्ध रहने की नाटकीयता प्रशित करते हुए भी हमेशा जीवन से असम्पृक्त रही । वह कागज पर योजनाओं के झण्डे बुलन्द करती रही और अपनी अन्तनिहित वास्तविकताओं में पराजित होती रही। एक तरफ वह आदर्शों के स्वप्नलोक निर्मित करती रही, दूसरी ओर यथार्थ की खुरदरी जमीन पर पिटती रही । परिणाम यह हुआ कि देश में बेकारी की सुरसा मुंह पसारती गई, प्रतिभा उचित स्थान न पाकर कुण्ठाग्रस्त होती गई और जन-जन में हताशा का माहौल उभरता गया।' शिक्षा-प्रशासन एवं शिक्षा से सम्बन्धित नीति-निर्धारण का कार्य सदैव ऐसे लोगों के हाथों में सौंपा गया, जिनका शिक्षा से कोई भी सीधा सम्बन्ध नहीं था। इसलिए शिक्षा सदैव गलत हाथों का खिलौना मात्र बनकर रह गई । आज भी हम उसी मूल शिक्षा-नीति पर चल रहे हैं, जो हमें ब्रिटिशों द्वारा प्रदान की गई थी। हम अपनी नीतियाँ विदेशों से उधार लेते रहे हैं, जो नीति विदेशों में असफल हो जाती है उन्हें ही हमारे यहाँ प्रयोग के तौर पर १. शिविरा--पत्रिका ; अक्टूबर, १९७७, पृ० १७५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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