Book Title: Lokprakash Part 03
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh
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ग्रन्थकार - संक्षिप्त परिचय एवं कृतित्व
इस अपूर्व, अद्वितीय, महान ग्रन्थ के रचयिता स्वनाम धन्य उपाध्याय श्री विनय विजय गणिवर्य मा० का नाम जैन दर्शन साहित्य में बडी श्रद्धा के साथ स्मरणकिया जाता है। इन्होने ऐसे-ऐसे अमूल्य ग्रन्थ सर्वजन सुखाय-सर्वजन हिताय प्रदान किये कि किसी भी आध्यात्म मर्मज्ञ अथवा मुमुक्षु व्यक्ति का हृदय अपार श्रद्धा से भर जाता है । ग्रन्थ रूप अमूल्य निधि के प्रणेता का नाम जैन साहित्याकाश में प्रखर सूर्य की भाँति सदैव देदीप्य मान रहेगा। परम वंदनीय, महान उपकारी इन महात्मा का जन्मस्थान, जन्म समय, दीक्षा काल आदि क्या है ? इस सम्बंधमें सर्वथा शुद्ध एवं प्रामाणिक साक्ष्यों का अभाव हृदय को पीड़ा कारक है । लोक प्रकाश ग्रन्थ के प्रत्येक सर्गके अन्तिम श्लोक में ग्रन्थकार ने स्वयं -
विश्ववाश्चर्यद कीर्ति-कीर्तिविजय श्री वाचकेन्द्रातिष्, द्राज श्री तनयोऽतनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगत्तत्व प्रदीपोपमे,
सर्गो निर्गलितार्थ सार्थ सुभगो पूर्ण सुखेनादिमः ।। अर्थात:- विश्व को आश्चर्य चकित कर देने वाली कीर्ति है जिनकी, उन "कीर्ति विजय''जी उपाध्याय के शिष्य और "राज श्री"माता तथा "श्री तेज पाल"जी के पुत्र, विनय वंत, विनय विजय नाम वाले (मैने) निश्चित ही जगत के तत्व को प्रदर्शित कराने में दीपक समान इस "लोक प्रकाश" की रचना की जिसका --(यह अमुक सर्ग समाप्त हुआ)। इस तरह से सर्गान्त में ग्रन्थ कार ने अपने उपकारी, पूज्य गुरू देव तथा संसारी माता-पिता के प्रति भाव भक्ति पूर्वक कृतज्ञता ज्ञापित की है।
. इससे इतना तो निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि इनकी माता का नाम 'राज श्री', पिता का नाम श्री तेजपाल' तथा गुरू महाराज का नाम 'श्री कीर्ति विजय जी' वाचकेन्द्र था। श्री कीर्ति विजय जी म० सा० अकबर बादशाह के प्रति बोधक, जगद् गुरू विरुद से सम्मानित आचार्य देव "श्री मद् हीर विजय जी" के शिष्य थे । इस तथ्य की पुष्टि के प्रमाण में लोकं प्रकाश काव्य की समाप्ति पर ग्रन्थकार द्वारा सर्ग ३७ के श्लोक संख्या ३२-३३ में उल्लेख किया गया है ।
श्री हीरविजय सूरीश्वर शिष्यौ सौदरावभूतां द्वौ । श्री सोमविजय वाचक- वाचक वर कीर्ति विजयाख्यौ ॥३२॥ तत्र कीर्ति विजयस्य किं स्तुमः, सुप्रभावममृतातेरिव ।। यत्करातिशयतोऽजनिष्टमत्प्रस्तरादपि सुधारसौऽसकौ ॥३३॥ इस प्रशस्ति के अनुसार आचार्य देव श्री मद् 'हीर विजय' जी म० सा० के दो
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