Book Title: Lokadharmi Pradarshankari Kalao ki Shaishik Upayogita Author(s): Mahendra Bhanavat Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 1
________________ लोकधर्मी प्रदर्शनकारी कलाओं की शैक्षणिक उपयोगिता डॉ० महेन्द्र भानावत (उप-निदेशक, भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर-राजस्थान) ___ लोकधर्मी प्रदर्शनकारी कलाओं की शैक्षणिक उपयोगिता का प्रश्न हममें से कइयों को चौंका देने वाला है क्योंकि हमने इन कलाओं को, ये जिस रूप में हैं उसी रूप में देखा है। हमारा नजरिया इनके प्रति घोर पारम्परिक व रूढ़िवादिता से ग्रसित रहा इसलिए हमने कभी यह नहीं सोचा कि ये कलाएँ हमारे जीवन के शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। विशिष्ट वार-त्यौहारों, मंगल-उत्सवों तथा शुभ-संस्कारों पर इन कलाओं को मात्र प्रदर्शित कर ही हम अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते रहे, नतीजा यह हुआ कि ये कलाएँ धीरेधीरे एक खाना-पूर्ति और रस्म अदायगी तक सीमित हो गईं। इसलिए इनका चेतन जीवन रूप और सौन्दर्य फीका पड़ने लगा, फलत: बहुत सारी कलाएँ अपने मूल रूप को ही खो बैठीं। रह गया उनका टूटियाई रूप जिससे कभी-कभी तो उनकी असलियत का पता लगाना ही मुश्किल हो गया। कलाओं का पिछड़ापन इसका एक कारण तो यह था कि हमने इन कलाओं को पिछड़ी जातियों की धरोहर समझकर इन्हें हीन दृष्टि से देखना प्रारम्भ कर दिया। यद्यपि इनसे हम लोग मनोरंजित अवश्य होते रहे परन्तु इन्हें छूआछुत की वस्तु समझकर इनको कभी उचित सत्कार और आदर का दर्जा देने की भावना मन में नहीं लाये। इसलिए ये कलाएँ उन कलावंतों तक सीमित रह गई जिनका परिवार और पूरी गृहस्थी इनके साथ बँधी हुई थी और जिनके बलबूते पर उनकी पीढ़ियों का गुजर-बसर चला आ रहा था। विशिष्ट संस्कारों और वार-त्यौहारों पर अपने यजमान के घर जाते, प्रदर्शन करते और बदले में बंधा-बंधाया नेगचार प्राप्त कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते । इसलिए इन लोगों ने अपनी कलाओं में इतनी दिलचस्पी और दक्षता प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं किया और न इन्हें इसकी आवश्यकता ही महसूस हुई। कलाओं के विविध रूप आजादी के बाद इन कलाओं एवं कलाकर्मियों के प्रति इन सबका नजरिया बदला। निम्न जातियों के उन्नयन एवं विकास के कई सोपान बने । समाजवादी विचारधारा ने बल पकड़ा, फलत: प्रदर्शनकारी कलाओं के विविध रूप भी लोगों की नजरों में आ समाये । इनके सर्वेक्षण-पर्यवेक्षण प्रारम्भ हुए। अनेक कलापिपासु, अनुसन्धित्सु और विद्वान इन कलाओं के अध्ययन-उपयोग हेतु जुट पड़े। उन्हें इन कला-रूपों में लोकमानसीय संस्कृति के ऐसे विराट रूप देखने की मिले जिनके आधार पर उनके लिए यह खोज निकालना आसान हो गया कि हमारे जीवन-संस्कारों के लिए इन कलाओं को कितनी शैक्षणिक उपयोगिता है और लोकजीवन के साथ इनका कितना गहरा तादात्म्य है। इन प्रदर्शनकारी कलाओं में मुख्यतः नृत्य, काबड़, पड़ तथा पुतलीकला के शैक्षणिक प्रयोग एवं उपयोग पर शिक्षाशास्त्रियों तथा कलाविदों के निकष कई एक महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। शैक्षणिक नृत्य हमारे देश में ऐसे बहुत से नृत्य हैं जिनका सामुदायिक शैक्षणिक उपयोग किया जा सकता है। यह प्रयोग Jain Education International For Private & Personal use only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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