Book Title: Lok Kalyan hi Shreshth Yagna
Author(s): 
Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf

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Page 3
________________ उत्तर में कहते हैं, "अर्जुन, जो कर्म कामना और स्वार्थ के लिए किये जाते हैं, उनका त्याग ही संन्यास है और कर्म के फलों में अनासक्त रहना इसी का नाम त्याग है।" कुछ आचार्यों ने कहा है कि सभी कर्मों को पाप समझकर उनका त्याग कर देना चाहिये। पर दूसरे आचार्यों ने यह छोड़ने की चीजें नहीं है। इस पर मेरा निश्चित मत जो है, वह भी सुन । वह यह है कि यज्ञ, दान, तप कभी त्यागना नहीं क्योंकि यह मनुष्य को पावन करनेवाला है। " देहधारी के लिए कर्म का सर्वथा त्याग असंभव है, इसलिए जिन्होंने कर्म फल की आस छोड़ दी है उन्हें ही त्यागी कहना चाहिये जिसने अहंभाव त्याग दिया है, जिसकी बुद्धि कर्मों में आसक्त नहीं है, वह यदि किसी का हनन भी करता है, तो वह मारने का दोषों से मुक्त है। जो मनुष्य अपना नित्य कर्म नहीं छोड़ता, वह अपने कर्तव्य कर्म द्वारा ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है। "जिस ईश्वर से भूत प्राणी उत्पन्न हुए हैं, और जिससे यह सारा संसार व्याप्त है, उसकी अपने कर्म द्वारा उपासना करने से ही सिद्धि मिलती है। कर्तव्य कर्म यदि दोष युक्त भी लगे तो उसे त्यागना नहीं चाहिये, क्योंकि जैसे धूम्र में अग्नि छिपी रहती है, उसी तरह शुभ कर्म भी कभी-कभी दोषों से आच्छादित दीखते हैं पर अनासक्त होकर, मन को जीतकर, कामना छोड़कर कर्म दोष से आच्छादित लगते हो, तो भी कर्तव्य कर्म के पालन से विमुख नहीं होना चाहिये, क्योंकि कर्म करने से ही सिद्धि मिलती है। जो ब्रह्म में लीन है वह न तो इच्छा करता है न चिंता करता है, सब प्राणियों को सम दृष्टि से देखता है, वह असल में मेरी ही भक्ति करता है । जो तमाम कर्म करता हुआ भी मेरे आश्रय में रहता है उसे ही शाश्वत शांति मिलती है। " भगवान और अर्जन में काफी प्रश्नोत्तर हो चुके थे । अर्जुन का समाधान भी हो रहा था, तो भी बीच-बीच में अर्जुन प्रश्न करता ही जाता था। अर्जुन नर का अवतार था। भगवान नारायण के अवतार थे। अब इस प्रश्नोत्तरी का अंत करने के लिए नारायण के अवतार श्रीकृष्ण ने नर के अवतार अर्जुन को कहा, "अर्जुन, सुन मेरा ध्यान कर, इसी से तेरी कठिनाइयाँ निर्मूल हो जायेंगी, पर यदि अहंकार के वश में आकर मेरा परामर्श तूं नहीं सुनेगा तो तेरा नाश हो जायेगा। यदि तूं अहंकार के वश में आकर यह समझता है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा, अर्थात् अपना कर्तव्य कर्म नहीं करूंगा तो तेरा यह निर्णय मिथ्या है, क्योंकि तेरी प्रकृति ही तुझे खींचकर कर्मों की ओर ले जायेगी। Jain Education International "मनुष्य अपने स्वभाव में बंधा हुआ विचरता है। इस लिए तू न भी चाहेगा, तो भी कर्म तो करना ही होगा। ईश्वर सबके हृदय में बैठा तमाम भूत प्राणियों को बलाता रहता है, इसलिए अहंकार को छोड़कर भगवान की शरण में जाकर अनासक्त होकर अपना कर्तव्य कर्म करता जा मन मुझमें लगा, मेरी ही भक्ति कर मुझे ही नमन कर। फिर तेरा मुझमें ही समावेश हो जायेगा। इसको मेरी प्रतिज्ञा समझ । इस तर्क-वितर्क को समाप्त करके अब तू मेरी शरण में आ जा। मैं तेरी रक्षा करूँगा । चिंता छोड़।' श्रीकृष्ण के इतना कहने के बाद अर्जुन संदेह-रहित हो गया। उसकी जबान को ताला लग गया। हृदय की अज्ञान की गांठ टूट गयी। ज्ञान का प्रकाश हो गया। तब कृष्ण ने पूछा, "क्यों अर्जुन, अब तेरा, संदेह गया या नहीं ?" अर्जुन ने कहा, " हे अच्युत, मेरा संदेह मिट गया। अब मैं तुमने जैसा बताया, वैसे ही अपने कर्तव्य कर्म में लगूंगा।" कर्मयोगी के अथवा भक्त के लक्षणों के उपरोक्त विवरणों से पता चलेगा कि इन दोनों के सब लक्षण एक ही समान हैं। समुद्र का पानी चाहे बंगाल की खाड़ी में से उठाओ या हिन्द महासागर से अथवा तो पश्चिम के समुद्र से उठाओ, सभी एक ही समान लवण - जल है । उसी तरह गीता में पुनरुक्तियाँ भरी पड़ी हैं और जान बूझकर व्यासजी ने रखी हैं। पर वे सारे के सारे उपदेश एक ही समान हैं। गीता का स्वाध्याय हितकर है, पर संक्षेप में यदि दूसरे अध्याय के स्थित मश के लक्षणों का हम मनन करें या बारहवें अध्याय के भक्तों के लक्षणों को पढ़ें अथवा तो चौदहवें अध्याय गुणातीतों का आचरण या सोलहवें अध्याय में दैवी संपदावाले का लक्षण पढ़ें तो वह सब के सब एक ही समान प्रेरक होंगे। श्रीकृष्ण गीता के द्वारा न केवल अर्जुन को पर सारे मनुष्य समाज को उपदेश देते हैं पर वे उपदेशामृत को घोलकर बलात किसी को पिला नहीं सकते। मुमुक्षु को सीढ़ी पर चढ़ने के लिए स्वयं ही परिश्रम करना पड़ता है। यदि वह स्वयं साधना की अवहेलना करे तो गीता या अन्य किसी भी शास्त्र का स्वाध्याय बेकार है । इन सब कड़े प्रतिबन्धों से जो कर्मयोगी और भक्त के लिए एक समान है, साधक को निराश नहीं होना चाहिये। भगवान भीतर बैठा है, पुकारने मात्र की आवश्यकता है। आत्मज्ञान दुर्लभ नहीं है पर मुमुक्षत्व चाहिये। आलसियों के लिए ईश्वर का मार्ग दुर्लभ है। भक्त साधकों के लिए यह अत्यंत सरल है। "राम कहै सुग्रीव सों लंका कितीक दूर, आसलियाँ अलगी धणी, उद्यम हाथ हजुर' अष्टदशी / 166 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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