Book Title: Lok Kalyan hi Shreshth Yagna
Author(s): 
Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/211875/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक कल्याण ही श्रेष्ठ यज्ञ हैं, अव्यक्त, अचिंत्य, कूटथल, अचल और ध्रुव सत्ता को पूजा करते हैं, जो सर्वत्र सम बुद्धि रखते हैं, इंद्रियों का निग्रह करते हैं, वे सर्वभूतों के हित की कामना करनेवाले मुझ ईश्वर को ही प्राप्त होते हैं। पर साथ ही अर्जुन को यह भी बता दिया कि देहधारियों के लिए अव्यक्त ईश्वर की यह उपासना कठिन है, यह कहकर श्रीकृष्ण ने सगुण उपासना को अपेक्षाकृत अधिक सुलभ बताकर इसी पर भार दे दिया और साथ ही इस मार्ग की विस्तारपूर्वक चर्चा भी की। उन्होंने कहा- “जो सारे कर्म मुझमें अर्पण करते हैं, मेरा ही ध्यान करते हैं, मेरी ही अनन्य भाव से उपासना करते हैं, उनका मैं संसार-सागर से शीघ्र उद्धार कर देता हूँ। इसलिए हे अर्जुन तू अपना मन मुझ पर ही लगा। अपनी बुद्धि का निवास भी मेरे ही भीतर कर। ऐसा करने से तेरा निवास भी मेरे भीतर ही स्थित हो जायेगा। जो प्राणी मात्र से मैत्री करता है, दयावान, जिसमें 'मैं और मेरा' ऐसी वासना विलीन हो गयी है, सुख और दुःख से जो अतीत है, क्षमावान है, सदा सन्तुष्ट है, जो यत्नवान है, दृढ़-निश्चयवाला है, मन और बुद्धि को मुझमें संपूर्णतया नारदजी ने व्यासजी से कहा था कि "भगवन महाभारत में अर्पण करता है, वह मेरा भक्त है और वह मुझे अत्यन्त प्रिय आपने भक्ति की कमी रक्खी, इसलिए आपको शांति नहीं मिल है। जिससे न लोग क्षुब्ध होते हैं, न वह लोगों से क्षुब्ध होता है, रही है। अब आप कोई ऐसा ग्रंथ निर्माण कीजिए, जिससे मनुष्यों हर्ष और क्रोध से जो अतीत है, न भयभीत है, जिसने इच्छा का में भक्ति का प्रसार हो। इसके फलस्वरूप आपको शांति । त्याग कर दिया है, शुद्ध है, चतुर है, कामना रहित है, व्यथा से मिलेगी। इसी पर व्यास भगवान ने श्रीमदभागवत का सजन रहित है, जिसने संकल्पों का त्याग कर दिया है, जो न तो किसी किया। वस्तु से प्रेम करता है और न द्वेष करता है, न चिंता करता है, पर भगवद्गीता भी तो महाभारत का ही अंग है और गीता और न इच्छा करता है, शुभ-अशुभ में जो समान है, मित्र और भक्तिमार्ग से शून्य नहीं है। इसलिए यह कहना कि महाभारत शत्रु से समान भाव से जो व्यवहार करता है, मान और अपमान में भक्ति को स्थान नहीं है, सर्वथा सही नहीं कहा जा सकता। में भी जो समान है, ठंडी-गर्मी, सुख-दुःख से विचलित नहीं होता, किसी वस्तु में आसक्ति नहीं है, निंदा-स्तुति में समान है, भागवत धर्म के अंतर्गत कर्मयोग और भक्ति दोनों का ही अधिक नहीं बोलता, जो भी मिल जाये उसी से संतुष्ट है, बुद्धि समावेश है, जो भगवद्गीता का विशेष रहा है। जिसकी स्थिर है, वह मेरा भक्त है और वही मुझे प्रिय है। इस पर गीता की भक्ति श्रीमद्भागवत की भक्ति से भिन्न है। तरह विस्तारपूर्वक भक्त के छत्तीस लक्षण गीताचार्य ने बतलाये गीता की भक्ति में भावावेश नहीं है। गीता की भक्ति तर्क और हैं। रास-क्रीड़ा की या तो नाम-स्मरण की कोई महिमा नहीं बुद्धि के आधार पर अवस्थित है। गायी। वैसे तो गीता के हर अध्याय में कर्मयोग के साथ-साथ कर्मयोगी के लक्षणों की ऊपर चर्चा हो चुकी है। भक्त के श्रीकृष्ण भगवान भक्ति पर भार देते ही रहे हैं। पर बारहवें लक्षणों की भी चर्चा हो चुकी। कर्मयोगी और स्थितप्रज्ञ और अध्याय का नामकरण ही भक्तियोग किया है। इसलिए इस गुणातीत के लक्षण भी इन्हीं से मिलते-जुलते हैं। इन दो में भेद अध्याय में नामकरण ही भक्तियोग किया है। इसलिए इस क्या? भक्ति को गीताचार्य ने एक ऐसे ऊँचे स्तर पर रख दिया अध्याय में भक्ति की विशेष चर्चा है। है कि उसका रास-क्रिया से मेल नहीं खाता। वास्तविक स्थिति भक्ति के संबंध में अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रारंभ तो यह है कि न तो कर्मयोगी के लिए ही और न भक्तियोग में ही भगवान ने अर्जुन को बता दिया कि जो अक्षर, अनिर्देश्य, के योगी के लिए ही संसार सागर से पार करना कोई सस्ता सौदा ० अष्टदशी / 1640 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। दोनों को ही इंद्रिय-संयम करके इच्छा, द्वेष इत्यादि का त्याग ' गुरुरणापिं वचाल्यते" इसमें स्थित होने के बाद बड़े से बड़ा दुःख करके अपने- आपको ईश्वर को समर्पण करना पड़ता है। भी मनुष्य को विचलित नहीं करता। घृत, तिल और जो की सामग्रियों के एक बड़े संग्रह को ऐसे लक्ष्य पर जिसे पहुँचना है, उसके लिए कर्मयोग और नाना भाँति के वेद-मंत्रों के जटाधन और स्वरसहित पाठ के साथ भक्ति दोनों ही उपरोक्त नियमों-सहित सस्ते सौदे हैं। यदि कोई अग्नि में होम कर यह समझता है कि मैंने एक बड़ा बारहवें अध्याय में भक्त और उसके लक्षणों का वर्णन है। भारी यज्ञ करके आपके लिए स्वर्ग का द्वार खोल दिया है, तो पर गीता का यह अध्याय वास्तव में अपवाद नहीं है। गीता के वह धोखा खाता है। इन सामग्रियों को जला देना न तो यज्ञ है, हर अध्याय में कर्मयोग और भक्ति दोनों की ही बार-बार स्तुति न कर्मयोग ही है। वास्तव में मनुष्य जीवन ही यज्ञ है। यही एक की गयी है और इनका अनुमोदन आता रहता है। "राग, भय प्रज्वलित अग्नि है। अच्छे कर्मों को लोक-कल्याण के लिए और क्रोध से रहित होकर मुझमें मन लगाकर जो मेरा आश्रय करना यही अग्नि में होम करना है। लेकर ज्ञान से पवित्र हो गये हैं, ऐसे लोग मुझे ही पाते हैं।" फिर कर्मयोग की विवेचना तो ऊपर हो चुकी है, कर्मयोगी के कहते हैं, "जो मुझे सब यज्ञ और तपों का भोक्ता और सब लक्षण भी बताये जा चुके हैं। उक्त नियमावलि के बंधनों सहित लोकों का स्वामी और सुहृद समझता है उसे शांति मिलती है।" और उच्च हेतु को सामने देखकर जो कर्म किया जाता है वही "जो मुझे सब भूतों मे स्थिर समझकर मेरी ही पूजा करता है कर्मयोग है और उसे करने वाला कर्मयोगी है। इस प्रकार के वह किसी भी हालत में हो, उसका निवास-स्थान मैं ही बन जाता कर्म करनेवाला ईश्वर की ही पूजा करता है, क्योंकि ऐसे कर्म हूँ।" इसलिए हर समय मेरा स्मरण कर और कर्म कर।" ध्यान यज्ञ है। यह भगवान है। इसलिए कर्म भी ईश्वर है। और ऐसे रहे, ‘स्मरण कर' और 'कर्म कर'। कर्मयोगी अपने कर्मों से ईश्वर की ही पूजा करते हैं। "जो अनन्य भाव से मेरी उपासना करते हैं ऐसे योगियों इस तरह भक्ति-मार्ग का पथिक जो यह समझता है कि के योग क्षेम की देखभाल मैं ही करता हूँ।" "जो बराबर मेरा अंत समय मे अजामिल की तरह नारायण नाम के उच्चारण मात्र कीर्तन करते रहते हैं, मेरे सामने नमन करते हैं, वे मेरी ही पूजा से या तो नित्य राम-नाम की एक हजार माला फेर देने मात्र से करते है।" "जो करता है, जो खाता है, जो देता है, जो तप अंत समय में बैकुंठ से विष्णु के पार्षद आकर यमदूतों को करता है, वे सब मुझे ही अर्पण कर।" भगाकर नामोच्चारक मृतक को विमान में बैठाकर सीधे बैकुठ दसवें अध्याय में भक्ति को दृढ करने के लिए भगवान ले जायेंगे, वह भी धोखा ही खाता है। "नर से साथ सूआ हर अपनी विभतियों का वर्णन करते हैं। ग्यारहवें में विश्वरूप का बोलै, राम प्रताप न जाणै"। बैकुण्ठ का मार्ग इतना सहल नहीं दर्शन कराते हैं. आगे चलकर फिर कहते हैं- "एकाग्र होकर है। 'सूली ऊपर सेज पिया की' इस सूली पर सोना यही एक भक्ति द्वारा जो मेरी सेवा करता है वह तीनों गुणों का पार करके भक्ति है। पर "यदने विषयमिव परिणामे अमृतोपमम्' जो स्वयं ब्रह्म-स्वरूप हो जाता है।" प्रारंभ में विष, पर अंत में अमृत है वह ही मुमुक्षु का मार्ग है। इस तरह सारी गीता में कर्मयोग और भक्ति दोनों का कर्मयोगी और भक्त दोनों का एक ही मार्ग है। मंसूर को जब निंरतर आदेश और अनुमोदन जारी रहता है। कुछ श्लोक सूली पर चढ़ाया जा रहा था। तब सूली के तख्ते पर से कर्मयोग की स्तुति के आते हैं, तो उसके पश्चात् शीघ्र ही भक्ति पुकारकर उसने कहा, "इश्कबाजो, यह स्वर्ग की सीढ़ी है। की प्रशंसा भी आ जाती है। इस तरह कर्म और भक्ति दोनों का जिसको स्वर्ग चलना हो वह मेरे साथ आ जाये," भगवान का सारी गीता में संमिश्रण है। मार्ग यह भोगमार्ग कदापि नहीं है। चाहे वह कर्मयोग का पथिक हो, चाहे भक्ति मार्ग का। इस दैवी रास्ते में विकट घाटियाँ हैं, बीच-बीच में अर्जुन अपने समाधान के लिए शंका उठाता "भ्रांति की पहाड़ी नदियाँ विच अहंकार की लाट बडा विकट रहता है और श्रीकृष्ण उत्तर देते चले जाते हैं। यमघाट"। इन दोनों मार्गों के पथिक को भोगों का त्याग करना अर्जुन का विषाद तो समाप्त हो गया, पर बीच-बीच में पड़ता है, पर अंत में तो यही मार्ग "अमृतोपमम्' है। अपने मन को संपूर्ण संतोष देने के लिए वह प्रश्न भी करता __ "यं लब्धता चापरं लाभं मन्यते नधिकंततः' इस लाभ से रहता है। जब काफी समाधान हो चुका, तब अंतिम समाधान के बढ़कर दूसरा कोई लाभ नहीं है। "यस्मिन् स्थितोन दुःखेन । लिए प्रश्न करता है- "हे कृष्ण, मुझे संन्यास का पूरा तत्व समझाइए और त्याग का तत्व भी पूरा बताइए।" जब कृष्ण ० अष्टदशी /1650 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर में कहते हैं, "अर्जुन, जो कर्म कामना और स्वार्थ के लिए किये जाते हैं, उनका त्याग ही संन्यास है और कर्म के फलों में अनासक्त रहना इसी का नाम त्याग है।" कुछ आचार्यों ने कहा है कि सभी कर्मों को पाप समझकर उनका त्याग कर देना चाहिये। पर दूसरे आचार्यों ने यह छोड़ने की चीजें नहीं है। इस पर मेरा निश्चित मत जो है, वह भी सुन । वह यह है कि यज्ञ, दान, तप कभी त्यागना नहीं क्योंकि यह मनुष्य को पावन करनेवाला है। " देहधारी के लिए कर्म का सर्वथा त्याग असंभव है, इसलिए जिन्होंने कर्म फल की आस छोड़ दी है उन्हें ही त्यागी कहना चाहिये जिसने अहंभाव त्याग दिया है, जिसकी बुद्धि कर्मों में आसक्त नहीं है, वह यदि किसी का हनन भी करता है, तो वह मारने का दोषों से मुक्त है। जो मनुष्य अपना नित्य कर्म नहीं छोड़ता, वह अपने कर्तव्य कर्म द्वारा ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है। "जिस ईश्वर से भूत प्राणी उत्पन्न हुए हैं, और जिससे यह सारा संसार व्याप्त है, उसकी अपने कर्म द्वारा उपासना करने से ही सिद्धि मिलती है। कर्तव्य कर्म यदि दोष युक्त भी लगे तो उसे त्यागना नहीं चाहिये, क्योंकि जैसे धूम्र में अग्नि छिपी रहती है, उसी तरह शुभ कर्म भी कभी-कभी दोषों से आच्छादित दीखते हैं पर अनासक्त होकर, मन को जीतकर, कामना छोड़कर कर्म दोष से आच्छादित लगते हो, तो भी कर्तव्य कर्म के पालन से विमुख नहीं होना चाहिये, क्योंकि कर्म करने से ही सिद्धि मिलती है। जो ब्रह्म में लीन है वह न तो इच्छा करता है न चिंता करता है, सब प्राणियों को सम दृष्टि से देखता है, वह असल में मेरी ही भक्ति करता है । जो तमाम कर्म करता हुआ भी मेरे आश्रय में रहता है उसे ही शाश्वत शांति मिलती है। " भगवान और अर्जन में काफी प्रश्नोत्तर हो चुके थे । अर्जुन का समाधान भी हो रहा था, तो भी बीच-बीच में अर्जुन प्रश्न करता ही जाता था। अर्जुन नर का अवतार था। भगवान नारायण के अवतार थे। अब इस प्रश्नोत्तरी का अंत करने के लिए नारायण के अवतार श्रीकृष्ण ने नर के अवतार अर्जुन को कहा, "अर्जुन, सुन मेरा ध्यान कर, इसी से तेरी कठिनाइयाँ निर्मूल हो जायेंगी, पर यदि अहंकार के वश में आकर मेरा परामर्श तूं नहीं सुनेगा तो तेरा नाश हो जायेगा। यदि तूं अहंकार के वश में आकर यह समझता है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा, अर्थात् अपना कर्तव्य कर्म नहीं करूंगा तो तेरा यह निर्णय मिथ्या है, क्योंकि तेरी प्रकृति ही तुझे खींचकर कर्मों की ओर ले जायेगी। "मनुष्य अपने स्वभाव में बंधा हुआ विचरता है। इस लिए तू न भी चाहेगा, तो भी कर्म तो करना ही होगा। ईश्वर सबके हृदय में बैठा तमाम भूत प्राणियों को बलाता रहता है, इसलिए अहंकार को छोड़कर भगवान की शरण में जाकर अनासक्त होकर अपना कर्तव्य कर्म करता जा मन मुझमें लगा, मेरी ही भक्ति कर मुझे ही नमन कर। फिर तेरा मुझमें ही समावेश हो जायेगा। इसको मेरी प्रतिज्ञा समझ । इस तर्क-वितर्क को समाप्त करके अब तू मेरी शरण में आ जा। मैं तेरी रक्षा करूँगा । चिंता छोड़।' श्रीकृष्ण के इतना कहने के बाद अर्जुन संदेह-रहित हो गया। उसकी जबान को ताला लग गया। हृदय की अज्ञान की गांठ टूट गयी। ज्ञान का प्रकाश हो गया। तब कृष्ण ने पूछा, "क्यों अर्जुन, अब तेरा, संदेह गया या नहीं ?" अर्जुन ने कहा, " हे अच्युत, मेरा संदेह मिट गया। अब मैं तुमने जैसा बताया, वैसे ही अपने कर्तव्य कर्म में लगूंगा।" कर्मयोगी के अथवा भक्त के लक्षणों के उपरोक्त विवरणों से पता चलेगा कि इन दोनों के सब लक्षण एक ही समान हैं। समुद्र का पानी चाहे बंगाल की खाड़ी में से उठाओ या हिन्द महासागर से अथवा तो पश्चिम के समुद्र से उठाओ, सभी एक ही समान लवण - जल है । उसी तरह गीता में पुनरुक्तियाँ भरी पड़ी हैं और जान बूझकर व्यासजी ने रखी हैं। पर वे सारे के सारे उपदेश एक ही समान हैं। गीता का स्वाध्याय हितकर है, पर संक्षेप में यदि दूसरे अध्याय के स्थित मश के लक्षणों का हम मनन करें या बारहवें अध्याय के भक्तों के लक्षणों को पढ़ें अथवा तो चौदहवें अध्याय गुणातीतों का आचरण या सोलहवें अध्याय में दैवी संपदावाले का लक्षण पढ़ें तो वह सब के सब एक ही समान प्रेरक होंगे। श्रीकृष्ण गीता के द्वारा न केवल अर्जुन को पर सारे मनुष्य समाज को उपदेश देते हैं पर वे उपदेशामृत को घोलकर बलात किसी को पिला नहीं सकते। मुमुक्षु को सीढ़ी पर चढ़ने के लिए स्वयं ही परिश्रम करना पड़ता है। यदि वह स्वयं साधना की अवहेलना करे तो गीता या अन्य किसी भी शास्त्र का स्वाध्याय बेकार है । इन सब कड़े प्रतिबन्धों से जो कर्मयोगी और भक्त के लिए एक समान है, साधक को निराश नहीं होना चाहिये। भगवान भीतर बैठा है, पुकारने मात्र की आवश्यकता है। आत्मज्ञान दुर्लभ नहीं है पर मुमुक्षत्व चाहिये। आलसियों के लिए ईश्वर का मार्ग दुर्लभ है। भक्त साधकों के लिए यह अत्यंत सरल है। "राम कहै सुग्रीव सों लंका कितीक दूर, आसलियाँ अलगी धणी, उद्यम हाथ हजुर' अष्टदशी / 166 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षेप में गीता का सार यह है। अपने कर्तव्य कर्म को कभी अपनी दिव्य श्रवण शक्ति से सुना, तो वह विह्वल हो उठा और न छोड़। लगन से अपने स्वधर्म का आचरण करता जा। शुभ धृतराष्ट्र से कहने लगा, "राजन, इस अद्भुत पुण्य संवाद को हेतु से सब प्राणियों की सेवा के लिए ही कर्मकर। फल के पीछे सुनकर मैं गद्गद् हो रहा हूँ और उसे याद करके और भगवान मत छोड़। इंद्रियों के भोगों से विरक्त हो। मन और बुद्धि पर के अद्भुत स्वरूप को स्मरण करके मुझे महान विस्मय हो रहा निग्रह रख। भगवान में भरोसा रख। जो कर्म करे, वह उसी को है, और बार-बार हर्ष हो रहा है, हे राजन् मेरा निश्चय सुनोअर्पण कर अहर्निश उस प्रभु का स्मरण कर। ईश्वर में और जहँ कर्मयोगी योगेश्वर कृष्ण के रूप में कोई भी कर्मयोगी है, तुममें कोई भेद नहीं है, क्योंकि तुम्हारे में और अन्य भूतों में सब जहाँ अर्जुन के रूप में लगन वाला परिश्रमी कोई भी उद्योगी वही एक सत्ता व्यापक होकर स्थित है। इसी तरह तुम भी सभी ___ साधक है वहाँ निश्चय ही श्री है, विभूति है, विजय है और आनंद . में स्थित हो। इसलिए जो ब्रह्म है वह ही तुम हो। तुम भी ब्रह्म है। यह मेरा निश्चित मत जान लो।" हो। द्वंद्वों से मुक्त रहो, सुख-दु:ख व मान-अपमान को समान 'कृष्ण बंदे जगत कुहम्' समझो। चिंता छोड़ दो। उसका ध्यान अर्थात् सब प्राणियों में जो घनश्यामदास बिड़ला से साभार वह स्थित है उसी ईश्वर का ध्यान करो। इसका तात्पर्य यह है कि सब प्राणियों का ध्यान अर्थात् उनके हित के लिए ही कर्म करो। "आदम खुदा नहीं, पर आदम खुदा से जुदा नहीं'- यह विश्व यही विराट् स्वरूप है। यही विश्व दर्शन है, ईश्वर-दर्शन भी यह ही है। तू भी वही है- “तत्वमसि।' जनक इत्यादि राज करते हुए, कर्म करते हुए भी अनासक्त रहे। धर्म, व्याध और तुलाधार भी कर्मों में अनासक्त थे। उन्हीं का अनुकरण करो। भगवान अपनी रचित सृष्टि और संसार के झंझटों में रमते हुए भी कमल जैसे जल में अलिप्त रहता है वैसे ही अलिप्त रहते हैं। तुम भी वैसा ही आचरण करो। इतना कहने के पश्चात् भी अंत में जो तुम्हारी इच्छा हो सो करो। ___इस पर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, "मैं स्वस्थ हूँ। अब आप जो कहोगे वही करूँगा।" यह गीता का सार है। हरेक अध्याय में विचरण करते हुए हम यह देखेंगे कि जो उपरोक्त सार बताया है उसी की सारी गीता में पुनरावृत्ति है। समुद्र का सारा जल, उसकी तरंगे, उसकी बूंदे एक ही प्रभु की सत्ता का चित्र है। एक ही शक्ति विश्व में व्याप्त है। द्वैत को कोई स्थान नहीं। 'अहं ब्रह्मास्मि' या 'तत्त्वमसि' का भी अर्थ यही है। व्यासजी की कृपा से संजय को महाभारत युद्ध देखने के लिए दिव्य-दृष्टि और सुनने के लिए दिव्य श्रवण शक्ति मिल भी गयी थी। इसलिए वह दूर बैठा-बैठा भी युद्ध की सारी क्रियाएँ देखता रहता था, और वहाँ जो कुछ होता था उसे सुनता भी रहता था। यह सब देख और सुनकर सारा विवरण धृतराष्ट्र को सुनाता रहता था। उसने जब कृष्ण अर्जुन के इस अद्भुत वार्तालाप को 0 अष्टदशी / 167 0