Book Title: Kundkund ki Atmadrushti Ek Chintan Author(s): Hukumchand P Sangave Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf View full book textPage 6
________________ आचार्य कुदकुद की आत्मदृष्टि : एक चिंतन 107 ज्ञान, चारित्र की युगपत् प्राप्ति को मोक्ष मार्ग मानते हैं। वे यह सब वर्णन करते तो हैं परन्तु इससे हमें यह ज्ञात होता है उन्हें आत्मा के वास्तविक स्वरूप की ओर जीव को उन्मुख करना ही इष्ट है। आत्म-स्वरूप वर्णन प्रमुख और शेष वर्णन या विवेचन गौण है। उनकी रचनाओं का हम अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि उनका एकमात्र उद्देश्य आत्मलाभ ही है / आत्म स्वरूप विवेचन एवं उसके भेद-प्रभेद के वर्गीकरण के माध्यम से आत्म निरूपण ही उनका प्रमुख उद्देश्य रहा है / आत्मा को जो जानता है वह सब जानता है। यही उनकी दृष्टि रही होगी। .. आचार्य ने षड्द्रव्यों को प्रथमतः बहुप्रदेशी एवं एकप्रदेशी अस्तित्व वाले द्रव्यों में वर्गीकृत किया है। काल द्रव्य को छोड़कर शेष द्रव्य बहुप्रदेशी हैं / समस्त लोक का निर्माण पंचास्तिकाय से होने के कारण आचार्य इन्हें "समय" भी कहते हैं उन्होंने पंचास्तिकाय का समापन करते हुए पंचास्तिकाय संग्रह को 'प्रवचनसार' कहा है।' इसके प्रति सम्यक श्रद्धान से आत्मज्ञान हो सकता है। यही विशुद्ध ज्ञान आत्मज्ञान है। समय या आत्मा ही लोक में सारभत है। ... आचार्य कुंदकुंद ने अपने समस्त कृतियों में आत्मा का प्रतिपादन प्रधान रूप से किया है। वही एकमात्र जानने योग्य है / उन्होंने यही कहा है कि जो एक आत्म तत्त्व को जानता है वह विश्व तत्त्वों की समस्त पर्यायों को जानता है / जो इसी एक आत्मा को नहीं जानता वह और किसी को भी नहीं जानता। आचार्य कंदकुंद ने अपनी कृतियों में आत्मप्रतिपादन निश्चय और व्यवहारनय से किया है / उन्होंने बड़ी कुशलता से व्यवहार और निश्चय का प्रतिपादन करते हुए आत्मतत्त्व का निरूपण किया है और अन्त में यही कहा है कि आत्मा उपादेय है और शेष हेय है। सद् द्रव्य ध्रुव है, असत् का कभी भी उत्पात नहीं होता। इसी कारण उन्होंने नियम को माना है। अतीत, अनागत एवं वर्तमान पर्याय हैं, वे सब ज्ञेय हैं, इसे आत्मा जानता है। ये सब सर्वज्ञ के ज्ञान का विषय है। ज्ञान और द्रष्टा रहना यह ज्ञाता आत्मा का परम लक्ष्य है। उन्होंने केवली को ज्ञाता-द्रष्टा कहा है वे अपने निजस्वरूप अर्थात् अपने ही आत्मतत्त्व को जानते हैं। अन्य पदार्थों के वे ज्ञाता हैं, लेकिन यह व्यवहार कथन मात्र है। वास्तव में केवल आत्मज्ञ है, सर्वज्ञ है / 2 आत्मा ही उपादेय है। यही आत्मतत्त्व स्वरूपनिरूपण में वे मानते आए हैं / आचार्य कुंदकुंद ने आत्म-ज्ञान को परमज्ञान माना है। अर्धमागधी विभागाध्यक्ष बालचन्द कला व विज्ञान महाविद्यालय सोलापुर-२ - - १.पंचास्तिकाय : गा० 173. 2. नियमसार: गा० 158. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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