Book Title: Kundkund ki Atmadrushti Ek Chintan
Author(s): Hukumchand P Sangave
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 1
________________ आचार्य कुंदकुंद की आत्मदृष्टि : एक चितन हुकुमचंद संगवे आचार्य कुंदकुंद की गणना उच्चस्तरीय, शीर्षस्थ, युग-प्रधान जैनाचार्यों में की जाती है । महावीर भगवान् और गणधर गौतम को मंगल कहा गया है। आचार्य कुंदकुंद का नाम भी गौतम गणधर के अनन्तर मंगलरूप में आता है। क्योंकि उन्होंने आत्मा को विश्वजीवन का केन्द्र बिन्दु मानकर अपनी समस्त कृतियों का सृजन किया है । आचार्य कुंदकुंद ने आत्मा-स्वरूप का विभिन्न दृष्टिकोणों से कथन किया है। दृष्टिकोणों के अनुरूप ही स्वरूप का निरूपण भी किया है। अनादिकाल से कर्ममलों से युक्त आत्मा को उन्होंने संसारी आत्मा कहा है, और यह भी कहा कि यही संसारी आत्मा समस्त कर्मफल से रहित होकर शुद्धात्मा की निर्मल दशा को प्राप्त कर सकता है। अनेक संसारी जीव अनादिकाल से कर्मों से संयुक्त हैं। वे सब संसारी आत्मा अपने पुरुषार्थ से कर्ममल को दूर कर सकते हैं। संसारी आत्मा परमात्मरूप शुद्धात्मस्वरूप को प्राप्त कर सकता है। आत्मा अनन्तानन्त गुणों से युक्त है। आत्मा के गुणों की प्रकटता, समस्त कर्मों की निर्जरा होने पर स्वतः ही होती है। संसारी आत्माओं को उन्होंने भव्य और अभव्य इन दो भेदों में वर्गीकृत किया है।' भव्यात्मा वे हैं जिनमें यह क्षमता है कि वे समस्त पूर्व कर्मों की निर्जरा करके मोक्ष को प्राप्त कर सकें। अभव्य आत्माएं वे हैं जो किसी भी काल में, किसी भी देश में अथवा किसी भी अवस्था में मोक्ष या सिद्धावस्था को प्राप्त नहीं कर सकते हैं । इस प्रसंग में उन्होंने सम्यक दृष्टि और मिथ्यादृष्टि का प्ररूपण किया है। व्रत, संयम, गुप्ति, समिति, शील एवं तप पर ही जिसकी दृष्टि स्थिर है और जो ये बाह्य क्रियाएं ही करता है उसकी दृष्टि मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि मोक्षादि तत्त्वों पर वह श्रद्धा नहीं करता है। वह भगवान् द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों पर अपनी दृष्टि स्थिर नहीं करता। मोक्षतत्त्व की यथार्थ दृष्टि संपादित करने के लिए सम्यग्दर्शन का होना आवश्यक माना गया है। अभव्य जीव अज्ञानी है और भव्यजीव ज्ञानी है। वही मुमुक्षु है। संसार का आवागमन चक्र शुद्धोपयोगरूप धर्म में श्रद्धान करते हुए सांसारिक भोग उपभोग में लीन होना है वह जो कर्म क्षय के कारणभूत शुद्धोपयोग में स्थिर नहीं होता, शुद्धोपयोगरूपधर्म में श्रद्धा नहीं करता है, इसलिए उसका संसार में आनाजाना बना रहता है। अभव्य जीव धर्मश्रवण, जिनोपदेश को ग्रहण तो करता है परंतु अपनी वह मिथ्या मान्यता को, मिथ्यात्व स्वभाव को त्यागता नहीं है। इसलिए आचार्य कहते हैं कि उसका यह व्यवहार ठीक वैसा ही है जैसे गुड़ मिश्रित दूध का सेवन करने वाले सर्प का। क्योंकि वह कभी भी विष १. पंचास्तिकाय : गा० १२० २. वही : गा० १०६. ३. समयसार : गा० १७३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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