Book Title: Kundaliniyoga Ek Chintan Author(s): Rudradev Tripathi Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf View full book textPage 1
________________ HAMAALAIMINAMILLILLAHAMALALAILABILIABILIARI.IMILARIA (साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ कुण्डलिनी योग : एक चिन्तन -डा. रुद्रदेव त्रिपाठी [एम-ए० (द्वय), पी-एच० डी०, डी० लिट०, आचार्य, विशेष कर्त्तव्याधिकारी बृजमोहन बिड़ला शोध केन्द्र, उज्जैन] A- STAR कुण्डलिनी का स्वरूप-निरूपण आत्मानुभूति के व्यावहारिक विज्ञान की परम्परा में 'दो वस्तुओं के मिलन को 'योग' की संज्ञा दी गई है।' 'कुण्डलिनी-योग' का तात्पर्य भी यही है कि-"शिव और जीव के मध्य पड़े माया के आवरण को हटाकर जीव का उसके मूलस्वरूप शिव से ऐक्य कराना।" कुण्डलिनी मानव की जीवनीशक्ति है और इसका निवास मूलाधार में है, वहीं स्वयम्भूलिङ्ग अवस्थित है तथा कुण्डलिनी उसको साढ़े तीन आवतों से वेष्टित कर अपने मुख से सुषुम्ना-पथ को रोककर सुषुप्त अवस्था में स्थित है। योगादि क्रियाओ के द्वारा साधक इसी सुषुम्ना-पथ जिसे ब्रह्मनाड़ी भी कहते हैं-की सुषुप्त शक्ति को तक पहुँचाने का प्रयास करता है । यह कुण्डलिनी 'विसतन्तुतनीयसी' कमलनालगत तन्तु के समान पतले आकार वाली है। "प्रसुप्त भुजंगाकारा' भी इसे ही कहा गया है। तन्त्र शास्त्र में कुण्डली का ध्यान अत्यन्त विस्तार से बतलाया है। यथा मूलोनिद्रभुजङ्गराजसदृशीं यान्तीं सुषुम्नान्तरं, भित्त्वाधारसमूहमाशु विलसत्सौदामिनी-सन्निभाम् । व्योमाम्भोजगतेन्दुमण्डलगलद् दिव्यामृतौघैः पति, सम्भाव्य स्वगृहागतां पुनरिमां सञ्चिन्तये कुण्डलीम् ॥ इसके अनुसार यह कुण्डलिनी मूलाधार से उन्निद्र भुजङ्गराज के समान ऊपर उठती हुई, आधार समुह का भेदन कर बिजली के सदृश तीव्रता से चक्रवती हुई तथा सहस्रदल कमल में विराजमान चन्द्रमण्डल से झरते हुए दिव्य अमृत समूह के द्वारा पति को सम्भावित कर वापस लौट आती है। rrrrrrrint A ३२२ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग www.jainelib)Page Navigation
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