Book Title: Krushnarshi Gaccha ka Sankshipta Itihas
Author(s): Shivprasad
Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf
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शिवप्रसाद
Nirgrantha
१५०५
वैशाख सुदि६. जयसिंहसूरि के चन्द्रप्रभ की धातु कीचिन्तामणि पार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त,
सोमवार पट्टधर जयशेखरसूरि प्रतिमा का लेख | जिनालय, बीकानेर लेखाङ्क ८९०.
१५०८
वैशाख सुदि ५ | जयसिंहसूरि के | शांतिनाथ की धातु लक्कड़वास का विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त,
सोमवार पट्टधर जयशेखरसूरि की प्रतिमा का लेख मंदिर, उदयपुर | लेखाक २३७.
मार्गशीर्ष सुदि १०/ जयसिंहसूरि की | संभवनाथ की धातु | महावीर जिनालय, रविवार
शाखा के की प्रतिमा का लेख वैदों का चौक, | कमलचन्द्रसूरि
बीकानेर
नाहटा, पूर्वोक्त, लेखाङ्क १२१३.
अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर कृष्णर्षिगच्छ की कृष्णर्षितपाशाखा की मुनिजनों के गुरु-परम्परा की जो तालिका बनती है, वह इस प्रकार है:
पुण्यप्रभसूरि [वि० सं० १४५०-१४७३, प्रतिमालेख
जयसिंहसूरि
[वि० सं० १४८३-१४८७, प्रतिमालेख]
कमलचन्द्रसूरि
जयशेखरसूरि [वि० सं० १५१०, प्रतिमालेख]
[वि० सं० १५०३-१५०८ प्रतिमालेख] कृष्णर्षितपाशाखा के प्रवर्तक कौन थे, यह शाखा कब और किस कारण से अस्तित्व में आयी, इस बात की कोई जानकारी नहीं मिलती।
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि कृष्णर्षिगच्छ वि० सं० की ९वीं शती के अंतिम चरण तक अवश्य ही अस्तित्व में आ चुका था। वि० सं० की १० वीं शती के प्रारम्भ का केवल एकमात्र विवरण है जयसिंहसूरि कृत धर्मोपदेशमालाविवरण की प्रशस्ति । इसके लगभग ३५० वर्षों पश्चात् ही इस गच्छ के बारे में विवरण प्राप्त होते हैं और ये साक्ष्य वि० सं० की १७वीं शती के प्रारम्भ तक जाते हैं। यद्यपि इस गच्छ के बारे में लगभग ३५० वर्षों तक कोई विवरण प्राप्त नहीं होता, किन्तु इस गच्छ की अविच्छिन्न परम्परा विद्यमान रही होगी, इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वि० सं० की १६वीं शती के पश्चात् इस गच्छ के सम्बन्ध में कोई भी विवरण न मिलने से ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय तक इस गच्छ का अस्तित्व समाप्त हो गया होगा और इसके अनुयायी किसी अन्य गच्छ में सम्मिलित हो गये होंगे।
संदर्भसूची:१. धर्मोपदेशमालाविवरण, सं० पं० लालचंद भगवानदास गांधी, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ्क २८, बम्बई १९४९, पृ० २२८-२३०; पं० लालचन्द भगवानदास गांधी, ऐतिहासिक लेखसंग्रह, श्री सयाजी साहित्यमाला, पुष्प ३३५, बड़ोदरा १९६३, पृ० ३०४ और आगे; और त्रिपुटी महाराज, जैन परम्परानो इतिहास, श्री चारित्र स्मारक ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ्क ५१, अहमदाबाद १९५२, पृ० ५१८ और आगे.
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