Book Title: Khartar Gaccha aur Tapagaccha me Pratikraman Sutra ki Parampara
Author(s): Manmal Kudal
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ || 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 118 खरतरगच्छ और तपागच्छ में प्रतिक्रमण सूत्र की परम्परा श्री मानमल कुदाल खरतरगच्छ के प्रभावशाली आचार्य श्री जिनप्रभसूरि जी (१४वीं शती ई.) की एक प्रमुख कृति है- विधिमार्गप्रपा । यह मूर्तिपूजक श्वेताम्बर परम्परा की क्रियाविधि का मानक ग्रन्थ है । इसमें सामायिक, प्रतिक्रमण, तपविधि, प्रव्रज्याविधि, योगविधि आदि का विवेचन है। लेखक ने यह सम्पूर्ण लेख पायधुनी, मुम्बई से सद्यः प्रकाशित विधिमार्गप्रपा से संकलित किया है । इस लेख के पाद टिप्पण (संदर्भ) में वर्तमान में प्रचलित खरतरगच्छ एवं तपागच्छ परम्परा के प्रतिक्रमण विषय भेद का भी उल्लेख किया गया है। लेख ज्ञानवर्धन की दृष्टि महत्त्वपूर्ण है। -सम्पादक जैन साहित्य की परम्परा को अविच्छिन्न बनाने में अनेक साहित्यकारों और उनके ग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। जैन साहित्य की इस परम्परा में 'विधिमार्गप्रपा' का अद्वितीय स्थान है। 'विधिमार्गप्रपा' नामक ग्रन्थ के प्रणेता खरतरगच्छीय जिनप्रभसूरि हैं। उनकी यह रचना जैन महाराष्ट्री प्राकृत में है। इस कृति का रचनाकाल विक्रम सं. १३६३ है। इसकी रचना कोसल (अयोध्या) में हुई थी। यह ग्रन्थ ३५७५ श्लोक परिमाण है। इसकी रचना प्रायः गद्य में है। 'विधिमार्ग' यह खरतरगच्छ का ही पूर्व नाम है। यह ग्रन्थ विधि-विधानों की अमूल्य निधि है। नित्य (प्रतिदिन करने योग्य) और नैमित्तिक (विशेष अवसर या कभी-कभी करने योग्य) सभी प्रकार के विधि-विधान इसमें समाविष्ट है। इतना ही नहीं आचार्य जिनप्रभसूरि ने इसमें जैन धर्म के विधि-विधानों का प्रामाणिक उल्लेख किया है। अद्यावधि जैन धर्म में विधि-विधानों से संबंधित ऐसे प्रामाणिक ग्रन्थ विरले ही देखने को मिलते हैं। इस ग्रन्थ के दशवे द्वार में 'प्रतिक्रमण समाचारी' का वर्णन किया गया है, जिसमें दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक इन पाँच प्रकार के प्रतिक्रमणों की यथाक्रम विधि निर्दिष्ट है। इन विधियों के अन्तर्गत बिल्ली दोषनिवारण की विधि, छींक दोष निवारण विधि और प्रतिक्रमण के समय बैठने योग्य वत्साकार मंडली की स्थापना विधि का भी निर्देश है। ___ 'विधिमार्गप्रपा' में वर्णित विभिन्न प्रतिक्रमण विधियों का हम यहाँ उल्लेख करेंगे। १. देवसियपडिक्कमणविही पुव्वोल्लिंगिया पडिकमणसामायारी पुण एसा। सावओ गुरूहि समं इक्को वा 'जावंति चेइयाई ति गाहादुगथुत्तिपणिहाणवज्जं चेययाई वंदित्तु, चउराइखमासमणेहिं आयरियाई वंदिय, भूनिहिय सिरो 'सव्वस्सवि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12