Book Title: Kayotsarga Pratikraman ka Mul Pran
Author(s): Ranjitsingh Kumat
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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________________ जिनवाणी | 15,17 नवम्बर 2006 ये संवेदनाएँ अनित्य हैं और इनके प्रति क्या राग और क्या द्वेषा यों संवेदनाएं देखते-देखते संस्कारों व देह के व्यापार से पार हो जाते हैं, परन्तु असावधानी होने पर या देखने की प्रक्रिया न जानने पर प्रतिक्रिया कर बैठते है और संस्कार बनाने की नई शृंखला प्रारम्भ कर लेते हैं, प्रतिक्रिया में जीना बंधन का मार्ग है और सजगता से देख कर द्रष्टा भाव में रहना वीतरागता की ओर बढ़ने का मार्ग पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सम्वत्सरी के प्रतिक्रमण में अपेक्षाकृत अधिक समय लगता है, क्योंकि कायोत्सर्ग में लोगस्स का पाठ आमतौर पर चार बोला जाता है, परन्तु पाक्षिक प्रतिक्रमण में आठ बार, चातुर्मासिक में 12 बार व सम्वत्सरी प्रतिक्रमण में 20 बार या 40 बार बोलने या मन ही मन उच्चारने की परिपाटी है। मन्दिरमार्गी प्रथा में सम्वत्सरी के प्रतिक्रमण में करीब तीन से चार घंटे लगते है। प्रतिक्रमण का मूल प्राण है.कायोत्सर्ग और परिपाटी में उसे मात्र पांचवें आवश्यक में समेट कर रख दिया गया। वह भी मात्र चार से 20 लोगस्स के पाठ मन में गुनगुनाने के लिये। कायोत्सर्ग की मूल भावना को ही भुला दिया गया और इससे प्रतिक्रमण के मूल उद्देश्य की प्राप्ति से हम वंचित हो गये। अतः आवश्यक है कि वर्तमान परिपाटी एवं व्यवहार की समीक्षा की जाय व मौलिक संकल्पना के अनुरूप व्यवहार को सुधारा जाय। सभी आचार्यों व विद्वद्जनों से प्रार्थना है कि प्रतिक्रमण की मूल भावना के अनुरूप परिपाटी की समीक्षा एवं सुधार कर साधकों को सही रूप से कायोत्सर्ग में स्थित होने की कला सिखायें और प्रतिक्रमण से अपेक्षित लाभ, “निःशल्यीकरण, विशुद्धिकरण" प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करें। (जिनवाणी, अगस्त 2002 से संकलित अंश) / -सेवानिवृत्त आई.ए. एस., सी-303, हीरानन्दानी गार्डन, डेफोडिल, पवई, मुम्बई (महा.)-400076 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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