Book Title: Kayotsarga Pratikraman ka Mul Pran
Author(s): Ranjitsingh Kumat
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 1
________________ 15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 219 कायोत्सर्ग : प्रतिक्रमण का मूल प्राण श्री रणजीतसिंह कूमट सेवानिवृत्त आई.ए.एस. श्री रणजीतसिंह जी कूमट चिन्तनशील साधक विद्वान् हैं। आपका आलेख कायोत्सर्ग के स्वरूप, महत्त्व एवं वर्तमान में प्रचलित परिपाटी में संशोधन पर प्रकाश डालता है। -सम्पादक पाँचवाँ आवश्यक 'कायोत्सर्ग' जैन साधना-पद्धति का विशिष्ट शब्द है जिसका अर्थ है-काया का उत्सर्ग या त्याग। यहां शरीर त्याग का अर्थ मृत्यु नहीं है, वरन् देहासक्ति या शरीर के प्रति ममता का त्याग है! प्रतिक्रमण का मूल उद्देश्य कायोत्सर्ग है, क्योंकि यही एक माध्यम है जिससे हम अपने अन्तर्मन में या स्वभाव में स्थित हो सकते हैं। प्रतिक्रमण प्रारम्भ करने पर अनुमति लेने का पाठ जो निम्न प्रकार बोला जाता है, उससे भी स्पष्ट है कि प्रतिक्रमण का मूल उद्देश्य कायोत्सर्ग ही है “इच्छामि गं भंते! तुोहि अअणुग्णाए समाणे देवसियं (रायसियं) पडिक्कमणं ठाएमि देवसियं (रायसियं) नाणदसणचरित्ताचरित्ततव-अश्यार-चिंतणत्यं करेमि काउत्सग्गं" अर्थ- भंते! आपकी आज्ञा का सम्मान करते हुए मेरी इच्छा है कि मैं दिन के लिये (रात्रि के लिये) प्रतिक्रमण में स्थापित होकर दिन भर में (रात्रि में) ज्ञान, दर्शन, चारित्र व तप के आराधन में हुए अतिचारों के संबंध में चिन्तन करने के लिये कायोत्सर्ग करूं हमारे दुःखों का मूल कारण है शरीर व इन्द्रिय.सुख के प्रति ममता, जिसके लिए हम क्या-क्या उपाय और परिश्रम नहीं करते? सुख के साधनों को एकत्र करने में ही सारा जीवन बिता देते हैं। शरीर के साथ शरीर के सुख के साधनों के प्रति आसक्ति बढ़ जाती है। और कभी-कभी ये सुख के साधन शरीर से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं, साधन ही लक्ष्य बन जाते हैं। साधनों के संग्रह एवं संरक्षण के लिए अत्यधिक परिश्रम कर शरीर का भी होम कर देते हैं। एक कामना की पूर्ति अनेक नई कामनाओं को जन्म देती है और सभी कामनाओं की पूर्ति असंभव है। कामना अपूर्ति से उत्पन्न तनाव से शरीर में अनेक बीमारियाँ घर कर लेती हैं, जिससे साधनों से सुख प्राप्त करने की बजाय दुःख का दौर शुरू हो जाता है। धर्म के जो भी पैगम्बर, अवतार या तीर्थकर हुए, वे बहुत बड़े चिकित्सक साबित हुए हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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