Book Title: Kashaymukti Kil Muktirev
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ ८८ कामना करता है, मान और सम्मान की अपेक्षा करता है, वह व्यक्ति अपने मान की पूर्ति के लिए अनेक प्रकार के पाप-कर्म करता है और कपटाचार का प्रश्रय लेता है। २० दुष्पूर्य लोभ की पूर्ति में लगा हुआ व्यक्ति सदैव ही दुःख उठाया करता है, अत: इन जन्म-मरण रूपी वृक्ष का सिंचन करने वाली कषायों का परित्याग कर देना चाहिए। कषाय-जय कैसे? - प्रश्न यह है कि मानसिक आवेगों (कषायों) पर विजय कैसे प्राप्त की जाये? पहली बात यह कि तीव्र कषायोदय में तो विवेक-बुद्धि प्रसुप्त ही हो जाती है, अतः विवेक-बुद्धि से कषायों का निग्रहण सम्भव नहीं रह जाता। दूसरे इच्छापूर्वक भी उनका निरोध सम्भव नहीं, क्योंकि इच्छा तो स्वत: उनसे ही शासित होने लगी है। पाश्चात्य दार्शनिक स्पीनोजा (Spinoza) के अनुसार आवेगों का नियंत्रण संकल्पों से भी संभव नहीं, क्योंकि संकल्प तो आवेगात्मक स्वभाव के आधार पर ही बनते हैं और उसके ही एक अंग होते हैं। २१ तीसरे, आवेगों का निरोध भी मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से अहितकर माना गया है और उनकी किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति आवश्यक मानी गयी है। तीव्र आवेगों के निरोध के लिए तो एक ही मार्ग है कि उन्हें उनके विरोधी आवेगों द्वारा शिथिल किया जाये। स्पीनोजा की मान्यता यही है कि कोई भी आवेग अपने विरोधी और अधिक शक्तिशाली आवेग के द्वारा ही नियंत्रित या समाप्त किया जा सकता है। २२ जैन एवं अन्य भारतीय चिन्तकों ने भी इस सम्बन्ध में यही दृष्टिकोण अपनाया है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि शान्ति से क्रोध को, मृदुता से मान को, सरलता से माया को और सन्तोष से लोभ को जीतना चाहिए।२२ आचार्य कुन्दकुन्द तथा आचार्य हेमचन्द्र भी यही कहते हैं। धम्मपद में कहा है कि अक्रोध से क्रोध को, साधुता से असाधुता को जीतें तथा कृपणता को दान से और मिथ्या भाषण को सत्य से पराजित करें। २५ महाभारत में भी लगभग इन्हीं शब्दों में इन वृत्तियों के ऊपर विजय प्राप्त करने का निर्देश है।२६ महाभारत और धम्मपद का यह शब्द-साम्य और दशवैकालिक एवं धम्मपद का यह विचार-साम्य बड़ा महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः कषाय ही आत्म-विकास में बाधक है। कषायों का नष्ट हो जाना ही भव-भ्रमण का अंत है। एक जैनाचार्य का कथन है 'कषायमुक्ति: किल मुक्तिरेव'- कषायों से मुक्त होना ही वास्तविक मुक्ति है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि साधक को हमेशा यही विचार करना चाहिए कि मैं न तो क्रोध हूँ, न मान, न माया, न लोभ ही हूँ अर्थात् ये मेरी आत्मा के गण नहीं हैं। अतएव मैं न तो इनको करता हूँ, न करवाता हूँ और न करने वालों का अनुमोदन (समर्थन) करता हूँ।२७ इस प्रकार कषायों को विकृति समझकर साधक शुद्ध आत्म-स्वरूप का चिन्तन करते हुए इनसे दूर होकर शीघ्र निर्वाण प्राप्त कर लेता है, क्योंकि इन चारों दोषों का त्याग कर देने वाला पाप नहीं कर सकता है। सूत्रकृतांग में कहा गया है कि क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार महादोषों को छोड़ देने वाला महर्षि न तो पाप करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18