Book Title: Kashay ka Pratikraman
Author(s): Sampatraj Dosi
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 3
________________ ||15,17 नवम्बर 2006|| जिनवाणी प्रतिक्रमण के पाठों में व विधि में अलग-अलग सम्प्रदायों व फिरकों में काफी मतभेद है। मात्र स्थानकवासी परम्परा में भी पाठों व विधि के बारे में एकरूपता नहीं है। वैसे प्रतिक्रमण दो तरह से पाँच-पाँच प्रकार का माना जाता है। प्रथम काल की अपेक्षा- १. देवसिय २. राय ३. पाक्षिक ४. चातुर्मासिक एवं ५. सांवत्सरिक। दूसरे रूप में आस्रव की अपेक्षा से- १. मिथ्यात्व का २. अव्रत का, ३. प्रमाद का ४. कषाय का तथा ५. अशुभ योग का। कषाय एवं उसका प्रतिक्रमण कर्म-बन्ध अथवा आस्रव के मुख्य दो भेद माने गये हैं - प्रथम कषाय दूसरा योग। मिथ्यात्व, अव्रत तथा प्रमाद इन तीनों का समावेश कषाय में हो जाता है। कषाय के चार रूप या भेद माने गये हैं, यथा- १. अनन्तानुबन्धी, २. अप्रत्याख्यानी, ३. प्रत्याख्यानावरण व ४. संज्वलन। मिथ्यात्व अवस्था अथवा मिथ्यात्व गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय नियम से माना गया है। अव्रती सम्यग्दृष्टि अवस्था में अप्रत्याख्यानी का, देशव्रती अवस्था में प्रत्याख्यानावरण का व प्रमादी-अप्रमादी गुणस्थान में संज्वलन कषाय का उदय माना गया है। वीतरागता से पूर्व तक अर्थात् दसवें गुणस्थान तक नियम से कषाय का उदय मान्य है। अनन्तानुबन्धी आदि चारों प्रकार के कषाय में से किसी में भी रहना समभाव का अतिक्रमण है। जब तक अतिक्रमण चालू रहता है तब तक प्रतिक्रमण भी आवश्यक है, क्योंकि साधना का मूल उद्देश्य ही पूर्ण समभाव अर्थात् वीतरागता है। वीतरागियों के समभाव का अतिक्रमण नहीं होता है तो वहाँ प्रतिक्रमण की भी आवश्यकता नहीं रहती है। वीतरागता के अभाव में जब तक जीव सकषायी रहता है तब तक वह निश्चित ही समभाव अथवा समता का अतिक्रमण करता ही है। इसलिए कषाय का पूर्ण प्रतिक्रमण तो वीतरागता में ही संभव है परन्तु जब तक पूर्ण वीतरागता प्रकट नहीं होती तब तक बार-बार प्रतिक्रमण करते रहना भी परम आवश्यक है। प्रतिक्रमण करते हुए वीतरागता का लक्ष्य बराबर बना रहना चाहिये। तभी प्रतिक्रमण सच्चा या वास्तविक कहा जा सकता है। मात्र पाठों का उच्चारण कर लेने से सच्चा या वास्तविक प्रतिक्रमण नहीं कहा जा सकता है। जैन धर्म में तो सारी साधना का मूल उद्देश्य ही वीतरागता, पूर्ण समभाव एवं समता ही है। क्योंकि सच्चा एवं वास्तविक सुख चारों कषायों अथवा राग-द्वेष और एक शब्द में कहा जाये तो मोह के क्षय के बिना हो नहीं सकता। मोह एवं कषायों की जितनी-जितनी कमी होती है, उतनी-उतनी ही शान्ति भी निश्चित बढ़ती है। जैसे भोजन करें और भूख न मिटे तथा पानी पीयें और प्यास न बुझे यह कभी संभव नहीं हो सकता, इसी प्रकार कषायों की कमी का फल भी तत्काल शान्ति का मिलना है। आज की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि धर्म करते हुए भी जीवन में शान्ति प्रायः नहीं बढ़ रही है। इसका एक कारण यह भी है कि धर्म का फल प्रायः परलोक से जोड़ दिया जाता है, परन्तु सच्चाई यह है कि पुण्य कर्म का फल भले ही परलोक में मिले, किन्तु धर्म का फल तो तत्काल ही मिलता है। धर्म से कोई बन्ध नहीं होता जिसका फल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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