Book Title: Kashay ka Pratikraman
Author(s): Sampatraj Dosi
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 2
________________ 266 जिनवाणी "रागो य दोसो य बिय कम्मबीयं" - उत्तराध्ययन सूत्र ३२.७ राग एवं द्वेष दोनों न करना ही समभाव है। प्रत्येक आत्मा का स्वभाव ही पूर्ण समभाव या समता में रहना है। राग अथवा द्वेष करना विषम भाव है और विषम भाव में जाना या रहना यही समता का अतिक्रमण है । व्यक्ति जब तक पूरा वीतराग नहीं बन जाता तब तक वह निरन्तर कभी राग एवं कभी द्वेष करता ही रहता है । राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया व लोभ इन सबको अठारह पापों में गिना जाता है। पापों में कुछ पाप जैसे मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन आदि का त्याग करने पर वे पाप नहीं भी किये जायें ऐसा हो सकता है, परन्तु क्रोध, मान, माया, लोभ, राग एवं द्वेष आदि ऐसे पाप हैं जिनके करने का त्याग करने पर भी उनका होना रुक नहीं सकता । उदाहरण के तौर पर प्रत्येक साधु दीक्षा लेते समय अठारह ही पापों का तीन करण तीन योग से त्याग तो करता है, परन्तु साधु जब तक वीतराग नहीं बनता तब तक यानी दसवें गुणस्थान तक तो पाप के होने को रोका नहीं जा सकता। शास्त्रकारों ने वीतराग होने के बाद पाप का लगना नहीं माना। कारण कि पाप कषाय के बिना होता नहीं । जब तक कषाय का सद्भाव या उदय है तब तक पाप से कोई भी जीव बच नहीं सकता। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो कषाय का पूरा प्रतिक्रमण तो वीतराग अवस्था में ही हो सकता है । 15.17 नवम्बर 2006 अतिक्रमण करना व होना- जिस प्रकार पाप का करना और पाप का होना- दोनों में भिन्नता है उसी प्रकार अतिक्रमण करना और होना भी भिन्न है । परन्तु जब तक करना होने में बदल नहीं जाता तब तक प्रयास करते रहना भी परम आवश्यक है। साथ में यह भी आवश्यक है कि साधन और साध्य के स्वरूप को अच्छी तरह समझने का प्रयास किया जाए। ज्ञान और क्रिया जो वीतरागता के साधन हैं आज हमने उन्हीं साधनों को साध्य मान लिया है। ज्ञान सीख कर एवं अनेक प्रकार की धार्मिक क्रियाएँ करके यह समझ लिया जाता है कि हमने धर्म कर लिया, परन्तु वीतरागता की ओर कितना कदम बढ़े प्रायः यह नहीं देखा जाता। परन्तु शास्त्रकार कहते हैं कि पूर्वी तक का ज्ञान और मन, वचन व काया से शुद्ध साधुत्व की पालना अनन्त बार कर लेने पर भी अगर कषाय कम नहीं हुए तो जीव मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। यह आवश्यक नहीं कि मात्र शास्त्रों का ज्ञान सीखने अथवा अमुक-अमुक त्याग कर लेने पर कषाय अथवा राग- -द्वेष कम पड़ ही जाय । क्योंकि जैसा प्रायः देखा जाता है कि ज्ञान और क्रिया करते हुए अहं आदि कषाय बढ़ भी जाते हैं। आज ज्ञान और क्रिया का इतना प्रचार-प्रसार होने पर भी साम्प्रदायिक द्वेष, निन्दा, ईर्ष्या, असहिष्णुता आदि घटने के बजाय बढ़ रहे हैं। साधु-साध्वियों के लिये तो प्रतिक्रमण प्रातः एवं सायं अवश्यकरणीय माना गया है, जैसा कि ऊपर कहा गया है कि आज का प्रतिक्रमण मात्र औपचारिकता रह गयी है । इस प्रतिक्रमण सूत्र 'छः आवश्यक माने गये हैं यथा १. सामायिक, २. चउवीसत्थव, ३. वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५. कायोत्सर्ग परन्तु तथा ६. प्रत्याख्यान । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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