Book Title: Kashay aur Pratikraman Author(s): Amitprabhashreeji Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 3
________________ 115,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी | 241 कषाय के मूल भेद चार बतलाये हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ। ये कषाय पुनर्जन्म रूपी बेल को प्रतिक्षण सींचते रहते हैं- 'चत्तारि कसाया सिंचति मूलाई पुणब्भवस्स तथा इन चार कषायों- क्रोध, मान, माया, लोभ से क्रमशः चार प्रीति, विनय, सरलता, संतोष, सद्गुणों का नाश होता है। सद्गुणों के नाश होने पर आत्मा सर्वगुण को प्राप्त नहीं करता। जैनागम में जहाँ आत्म-गुणों के घात की चर्चा हुई है, वहाँ आत्म-गुणों के प्रकटीकरण के उपाय भी दर्शाये हैं उवसमेण हणे कोहं, माणं मदयया जिणे। मायमज्जवभावेण, लोभं संतोस ओ जिणे ।। क्रोध को शान्ति(क्षमा) से, मान को मृदुता से, माया को ऋजुता से और लोभ को संतोष से जीतना चाहिये। यदि अन्तर्मन से क्षमा-शांति, मृदुता-विनम्रता, ऋजुता-सरलता, संतोष-संयम को सम्यग् रूप से धारण किया जाये तो निश्चय ही जीवात्मा कषाय रहित हो सकता है। १. क्रोध के प्रतिक्रमण से क्षमा गुण का आविर्भाव- क्रोध आत्मा की एक ऐसी विकृति है, कमजोरी है, जिसके कारण उसका विवेक समाप्त हो जाता है। क्रोध शांति भंग करने वाला मनोविकार है। यह मानसिक अशान्ति के साथ ही वातावरण को भी कलुषित और अशान्त कर देता है। कहा गया है'क्रोधोदयाद् भवति कश्य न कार्यहानिः' अर्थात् क्रोध के उदय में किसकी कार्यहानि नहीं होती, सभी की हानि होती है। जैन ग्रंथों में अनेकानेक महापुरुषों ने क्रोध-कषाय से अपनी भव-परम्परा बढ़ाई है, लेकिन जब स्वविवेक से स्वयं का निरीक्षण-परीक्षण करते हैं तो स्वयं के पश्चात्ताप से संसार की यात्रा समाप्त या सीमित हो जाती है। उल्लेखनीय है चण्डकौशिक का प्रसंग! चण्डकौशिक ने अपनी विषमयी ज्वाला से अगणित राहगीरों को भस्मात् कर डाला। हजारों पैड़-पौधे, लतायें, विषैली फूंकारों से जलकर राख हो गईं। इस कारण वह भू-भाग प्राणिमात्र से शून्य हो गया। उसी विकट, भयावह स्थान पर प्रभु महावीर पधारे व बांबी के पास ध्यानस्थ हो गये। जब चंडकौशिक ने उन्हें अपने बिल के नजदीक देखा तो अपनी क्रोधित विषाक्त आँखों से तीव्र ज्वालाएँ निकालने लगा और क्रोधाविष्ट होकर डंक मारा तो दुग्ध सी श्वेत धारा बह निकली। यह अनुपम दृश्य देखकर वह आश्चर्यचकित और भ्रमित सा हो उठा। भगवान् महावीर ने 'बुज्झसि! बुज्झसि!' कहा। यह शब्द सुनकर चंडकौशिक की सुप्तावस्था जाग्रत हो उठी और तत्क्षण जातिस्मरण ज्ञान से यह अनुभव किया कि पूर्वभव के क्रोध के वशीभूत होकर मेरी यह दुर्दशा हुई। मैंने तीव्र क्रोध के कारण कितने कष्ट उठाये और इसी कारण दुर्गति को प्राप्त हुआ। वह चंडकौशिक शान्त होकर अन्तर्मन से पूर्वकृत दुष्कृत्यों का पश्चात्ताप करने लगा। भगवान् महावीर के समक्ष किये हुए पाप (क्रोध-कषाय) की क्षमायाचना की। निश्चल शांत मुद्रा में स्थिर हो गया। उसके शरीर पर कीड़ियों ने डेरे डाल दिये। शरीर को छिद्र युक्त कर दिया, पर वह क्षमा रूपी अचूक शस्त्र से क्रोध रूपी महाशत्रु को परास्त करता है, फलस्वरूप क्रोध का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6