Book Title: Kashay aur Pratikraman
Author(s): Amitprabhashreeji
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 2
________________ जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006 उक्त भेद-प्रभेदों का सारांश है कि दर्शन मोहनीय के उदय से सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती। सम्यग्दर्शन आध्यात्मिक जीवन का प्राण है। समकित प्राप्ति पश्चात् चारित्र धर्म की प्राप्ति होती है। चारित्रधर्म की परिपालना में चारित्र मोहनीय कर्म साधक की साधना में बाधक है। अनंतानुबंधी-कषाय एवं दर्शन मोहनीय के रहते समकित, अप्रत्याख्यान कषाय के रहते श्रावक धर्म, प्रत्याख्यानावरण के रहते संयतपना और संज्वलन-कषाय के रहते यथाख्यात चारित्र प्रकट नहीं होता। कषाय की उत्पत्ति का मूल कारण जानकर आत्म-स्वभाव में स्थित होने के लिये कषाय से मुक्त होना होगा। आत्मा ज्ञान का घन पिण्ड और आनन्द का केन्द्र है, अपने स्वभाव से स्वयं परिपूर्ण है। लेकिन कुछ विकृतियाँ/ विकारों के कारण विभाव दशा में आ गई है। इस विभाव दशा से स्वभाव में लौटने के लिये अनेकानेक मार्ग हैं। उनमें से एक है- प्रतिक्रमण, आत्म-शोधन या आत्म-निरीक्षण। ___ अध्यात्म प्रधान जिनशासन में आत्म-शुद्धि को सर्वोपरि महत्त्व प्राप्त है। प्रतिक्रमण जीवन-साधना 'की एक प्रक्रिया है, अध्यात्म-साधना का मूल आधार है। अपने अन्दर ही अपनी खोज को प्रतिक्रमण कहा गया है। आत्मा जब क्षयोपशम भाव से निकलकर उदय भाव में प्रविष्ट हो जाता है, तो उस आत्मा को पुनः उदय भाव से हटाकर क्षायोपशमिक भाव में स्थापित करना अर्थात् सम्यक् मार्ग को छोड़कर उन्मार्गगामी बनी आत्मा को उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर लाना ही प्रतिक्रमण कहा जाता है स्वस्थानाद्यत्परस्थानं प्रमादस्य वशंगतः । तस्यैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते ।। प्रतिक्रमण पर आचार्यों ने बड़ी विस्तृत व्याख्याएँ की हैं। बहुत ही सूक्ष्म व गंभीर दृष्टि से चिन्तनमनन-विवेचन किया है। प्रतिक्रमण के दो भेद किये हैं - द्रव्य प्रतिक्रमण और भाव प्रतिक्रमण । द्रव्य प्रतिक्रमण बाह्य परिप्रेक्ष्य में मुँहपत्ति, आसन, शब्दोच्चारण, काल-विधि आदि के द्वारा किया जाता है। भाव प्रतिक्रमण अन्तर्मन से आत्मशुद्धि की भावना से किया जाता है। भाव-प्रतिक्रमण के विषयभेद की दृष्टि से स्थानांगसूत्र में पाँच प्रकार बताये हैं- 'पंचविहे पडिक्कमणे पण्णत्ते तं जहा- आसवदारपडिक्कमणे, मिच्छत्तपडिक्कमणे, कसाय-पडिक्कमणे, जोगपडिक्कमणे, भावपडिक्कमणे!' साधना के क्षेत्र में मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कणाय और अशुभ योग ये पाँच दोष माने गये हैं। साधक प्रतिदिन साधनाकाल में जानते-अजानते दोषों के प्रतिक्रमण के दौरान स्व-निरीक्षण करता है कि यदि मैं मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग में चला गया तो मुझे पुनः सम्यक्त्व, व्रत, अकषाय, अप्रमाद और शुभ योग में प्रवृत्त होना चाहिये। ___ स्थानांग सूत्र में वर्णित पंच-प्रतिक्रमण एवं साधनाकाल में लगे पाँच दोषों में कषाय भाव भी आत्मा को कलुषित करने वाले कहे गये हैं। कषाय प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दोनों ही प्रकार से आत्मा के उपयोग गुण या शुद्ध-स्वरूप को आच्छादित करते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में भ. महावीर ने कषाय को अग्नि कहा है और उसको बुझाने के लिये श्रुत (ज्ञान), शील, सदाचार और तप रूपी जल बताया है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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