Book Title: Karmo ki Dhoop Chav Author(s): Hastimal Acharya Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 2
________________ ३५० • व्यक्तित्व एवं कृतित्व स्वतः होता है। परन्तु यह विशिष्ट कर्म स्वतः नहीं होता। यहाँ तो जीव के द्वारा हेतुओं से जो किया जाय, उस पुद्गल वर्गणा के संग्रह का नाम कर्म है। कर्म के भेद और व्यापकता : कर्म के मुख्यतः दो भेद हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म। कार्मण वर्गणा का आना और कर्म पुद्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ सम्बन्धित होना, द्रव्य कर्म है। द्रव्य कर्म के ग्रहण करने की जो राग-द्वषादि की परिणति है, वह भाव कर्म है। आपने ज्ञानियों से द्रव्य कर्म की बात सुनी होगी। द्रव्य कर्म कार्य और भाव कर्म कारण है। यदि आत्मा की परिणति, राग द्वषादिमय नहीं होगी, तो द्रव्य कर्म का संग्रह नहीं होगा। आप और हम बैठे हुए भी निरन्तर प्रतिक्षण कर्मों का संग्रह कर रहे हैं। परन्तु इस जगह, इसी समय, हमारे और आपके बदले कोई वीतराग पुरुष बैठे तो वे सांपरायिक कर्म एकत्रित नहीं करेंगे। क्योंकि उनके कषाय नहीं होने से, ईयापथिक कर्मों का संग्रह है। सिद्धों लिए भी ऐसी ही स्थिति है। लोक का कोई भी कोना खाली नहीं है, जहां कर्मवर्गणा के पुद्गल नहीं घूम रहे हों। और ऐसी कोई जगह नहीं, जहां शब्द लहरी नहीं घूम रही हो । इस हाल के भीतर कोई बच्चा रेडियो (ट्रांजिस्टर) लाकर बजाये अथवा उसे आलमारी के भीतर रखकर ही बजाये तो भी शब्द लहरी से भी अधिक बारीक, सूक्ष्म कर्म लहरी है। यह आपके और हमारे शरीर के चारों ओर घूम रही है। और सिद्धों के चारों तरफ भी घूम रही है। परन्तु सिद्धों के कर्म चिपकते नहीं और हमारे आपके चिपक जाते हैं। इसका अन्तर यही है कि सिद्धों में वह कारण नहीं है, राग-द्वषादि की परिणति नहीं है । कर्म का मूल-राग और द्वेष : ऊपर कहा जा चुका है कि हेतु से प्रेरित हीकर जीव के द्वारा जो किया जाय, वह कर्म है। और कर्म ही दुःखों का का कारण है-मूल है। कर्म का मुल बताते हुए कहा कि-"रागो य दोसो, बीय कम्म बीयं ।" यानी राग और द्वेष दोनों कर्म के बीज हैं । जब दुःखों का मूल कर्म है, तो आपको, दुःख निवारण के लिए क्या मिटाना है ? क्या काटनी है ? दुःख की बेड़ी। यह कब हटेगी? जब कर्मों की बेड़ी हटेगी-दूर होगी। और कर्मों की बेड़ी कब कटेगी ? जब राग-द्वष दूर होंगे। बहुधा एकान्त और शान्त स्थान में अनचाहे भी सहसा राग-द्वष प्रा घेरते हैं। एक कर्म भोगते हुए, फल भोग के बाद आत्मा हल्की होनी चाहिये, परन्तु साधारणतया इसके विपरीत होता है। भोगते समय राग-द्वेष उभर आते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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