Book Title: Karmo ki Dhoop Chav Author(s): Hastimal Acharya Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 1
________________ [ ११ ] कर्मों की धूप-छाँह दुःख का कारण कर्म-बंध : बन्धुनो! वीतराग जिनेश्वर ने, अपने म्वरूप को प्राप्त करके जो आनन्द की अनुभूति की, उससे उन्होंने अनुभव किया कि यदि संसार के अन्यान्य प्राणी भी, कर्मों के पाश से मुक्त होकर, हमारी तरह स्वाधीन स्वरूप में स्थित हो जायें, तो वे भी दु:ख के पाश से बच जायेंगे यानी दुःख से उनका कभी पाला नहीं पड़ेगा । दुःख, अशान्ति, असमाधि या क्लेश का अनुभव तभी किया जाता, है, जबकि प्राणी के साथ कर्मों का बन्ध है। दुःख का मूल कर्म और कर्म का मूल राग-द्वेष है। संसार में जितने भी दुःख हैं, वेदनायें हैं, वे सब कर्ममूलक ही हैं। कोई भी व्यक्ति अपने कृत कर्मों का फल भोगे बिना नहीं रह पाता। कर्म जैसा भी होगा, फल भी उसी के अनुरूप होंगे। प्रश्न होता है कि यदि दुःख का मूल कर्म है तो कर्म का मूल क्या है ? दुःखमूलक कर्म क्या स्वयं सहज रूप में उत्पन्न होता है या उसका भी कोई कारण है ? सिद्धान्त तो यह है कि कोई भी कार्य कारण के बिना नहीं होता। फिर भी उसके लिए कोई कर्ता भी चाहिये । कर्तापूर्वक ही क्रिया और क्रिया का फल कर्म होता है। कर्म और उसके कारण : परम ज्ञानी जिनेश्वर देव ने कहा कि कर्म करना जीव का स्वभाव नहीं हे । स्वभाव होता तो हर जीव कर्म का बंध करता और सिद्धों के साथ कर्म लगे होते। परन्तु ऐसा नहीं होता है। अयोगी केवली और सिद्धों को कर्म का बंध नहीं होता। इससे प्रमाणित होता है कि कर्म सहेतुक है, अहेतुक नहीं । कर्म का लक्षण बताते हुए आचार्य ने कहा-"कीरइ जिएण होउहिं ।” जो जीव के द्वारा किया जाय, उसे कर्म कहते हैं। व्याकरण वाले क्रिया के फल को कर्म कहते हैं। खाकर आने पर उससे प्राप्त फल-भोजन को ही कर्म कहा जाता है। खाने की क्रिया से ही भोजन मिला, इसलिए भोजन कर्म कहाता है। सत्संग में आकर सत्संग के संयोग से कुछ ज्ञान हासिल करे, धर्म की बात सुने तो यहाँ श्रवण सुनने को भी कर्म कहा-जैसे "श्रवणः कर्म" । पर यहाँ इस प्रकार के कर्मों से मतलब नहीं है। यहाँ आत्मा के साथ लगे हुए कर्म से प्रयोजन है। कहा है"जिएण हेउहिं, जेणं तो भण्णई कम्म' यानी संसार की क्रिया का कर्म तो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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