Book Title: Karmo ki Dhoop Chav
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 4
________________ 12 ] [ कर्म-सिद्धान्त रहना बतलाया है। दृष्टान्त रूप से देखिये, अभी उस जाली के पास जहां प्राप धूप देख रहे हैं, घंटेभर के बाद वहां छाया आ जावेगी और अभी जहां दरवाजे के पास आपको छाया दिख रही है, कुछ देर के बाद वहां धूप आ जायेगी। इसका मतलब यह है कि धूप और छाया बराबर एक के पीछे एक आते रहते हैं / धूप-छांह परिवर्तन का द्योतक है / एक आम प्रचलित शब्द है, जिसका मतलब प्रायः प्रत्येक समझ जाता है कि यहां कोई भी वस्तु एक रूप चिरकाल तक नहीं रह सकती। जब मकान में धूप की जगह छाया और छाया की जगह जगह धूप पा गई तो आपके तन, मन में साता की जगह असाता और असाता की जगह साता आ जाये तो इसमें नई बात क्या है ? संयोग की जगह वियोग से आपका पाला पड़ा तो कौनसी बड़ी बात हो जावेगी ? ज्ञानी कहते हैं कि इस संसार में आए तो समभाव से रहना सीखो। संयोग में जरूरत से अधिक फूलो मत और वियोग के आने पर आकुल-व्याकुल नहीं बनो, घबराओ नहीं। यह तो सृष्टि का नियम है-कायदा है। हर वस्तु समय पर अस्तित्व में आती और सत्ता के अभाव में अदृश्य हो जाती है। इस बात को ध्यान में रखकर सोचो कि जहां छाया है वहां कभी धूप भी आयेगी और जहां अभी धूप है, वहां छाया भी समय पर पाये बिना नहीं रहेगी। अभी दिन है-सर्वत्र उजाला है। छः बजे के बाद सूर्योदय हुआ। परन्तु उसके पहले क्या था / सर्वत्र अंधेरा ही तो था। किसी को कुछ भी दिखाई नहीं देता था। यह परिवर्तन कैसे हो गया ? अन्धकार की जगह प्रकाश कहां से आ गया ? तो जीवन में भी यही क्रम चलता रहता है / जिन्दगी एक धूप-छाँह ही तो है। हर हालत में खुश और शान्त रहो : संसार के शुभ-अशुभ के क्रम को, व्यवस्था को, ज्ञानीजन सदा समभाव या उदासीन भाव से देखते रहते हैं। उन्हें जगत् की अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियाँ चंचल अथवा आन्दोलित नहीं कर पातीं। वे न तो अनुकूल परिस्थिति के आने पर हर्षोन्मत्त और न प्रतिकूलता में व्यथित एवं विषण्ण बनते हैं। सूरज की तरह उनका उदय और अस्त का रंग एक जैसा और एक भावों वाला होता है। वे परिस्थिति की मार को सहन कर लेते हैं, पर परिस्थिति के वश रंग बदलना नहीं जानते / जीवन का यही क्रम उनको सबसे ऊपर बनाये रखता है। अपनी मानसिक समता बनाये रखने के कारण ही वे आत्मा को भारी बनाने से बच पाते हैं। और जिनमें ऐसी क्षमता नहीं होती और जो इस तरह का व्यवहार नहीं बना पाते, वे अकारण ही अपनी आत्मा को भारी, बोझिल बना लेते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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