Book Title: Karmo ki Dhoop Chav
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 1
________________ १ कर्मों को की धूप-छाँह * श्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. दुःख का कारण कर्म-बंध : बन्धु ! वीतराग जिनेश्वर ने अपने स्वरूप को प्राप्त करके जो आनन्द की अनुभूति की, उससे उन्होंने अनुभव किया कि यदि संसार के अन्यान्य प्राणी भी कर्मों के पाश से मुक्त होकर, हमारी तरह स्वाधीन स्वरूप में स्थित हो जायें तो वे भी दुःख के पाथ से बच जायेंगे यानी दु.ख से उनका कभी पाला नहीं पड़ेगा । दुःख, अशान्ति, असमाधि या क्लेश का अनुभव तभी किया जाता, है जबकि प्राणी के साथ कर्मों का बन्ध है । दुःख का मूल कर्म और कर्म का मूल राग-द्व ेष है । संसार में जितने भी दु:ख हैं, वेदनायें हैं, वे सब कर्ममूलक ही हैं । कोई भी व्यक्ति अपने कृत कर्मों का फल भोगे बिना नहीं रह पाता । कर्म जैसा भी होगा फल भी उसी के अनुरूप होंगे । प्रश्न होता है कि यदि दुःख का मूल कर्म है तो कर्म का मूल क्या है ? दुःखमूलक कर्म क्या स्वयं सहज रूप में उत्पन्न होता है या उसका भी कोई कारण है ? सिद्धान्त तो यह है कि कोई भी कार्य कारण के बिना नहीं होता । फिर उसके लिए कोई कर्त्ता भी चाहिये । कर्त्तापूर्वक ही क्रिया और क्रिया का फल कर्म होता है | Jain Educationa International कर्म और उसके कारण : परम ज्ञानी जिनेश्वर देव ने कहा कि कर्म करना जीव का स्वभाव नहीं है । स्वभाव होता तो हर जीव कर्म का बंध करता और सिद्धों के साथ कर्म लगे होते । परन्तु ऐसा नहीं होता है । अयोगी केवली और सिद्धों को कर्म का बंध नहीं होता । इससे प्रमाणित होता है कि कर्म सहेतुक है, श्रहेतुक नहीं । कर्म का लक्षण बताते हुए आचार्य ने कहा - "कीरइ जिएण हेउहिं ।" जो जीव के द्वारा किया जाय, उसे कर्म कहते हैं । व्याकरण वाले क्रिया के फल को कर्म कहते हैं । खाकर आने पर उससे प्राप्त फल - भोजन को ही कर्म कहा जाता है । खाने की क्रिया से ही भोजन मिला, इसलिए भोजन कर्म कहाता है । सत्संग में आकर कोई सत्संग के संयोग से कुछ ज्ञान हासिल करे, धर्म की बात सुने तो यहां श्रवण सुनने को भी कर्म कहा - जैसे " श्रवणः कर्म" । पर यहां इस प्रकार के कर्मों से मतलब नहीं है । यहाँ आत्मा के साथ लगे हुए कर्म से प्रयोजन है । कहा है"जिएण हे उहिं, जेणं तो भण्णई कम्मं" यानी संसार की क्रिया का कर्म तो * आचार्यश्री के प्रवचन से उद्धृत । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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