Book Title: Karmasiddhanta ki Upayogita
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

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Page 9
________________ "अनैतिक कर्मों = अठारह पाप स्थानकों तथा सप्तकुव्यसनों आदि पापस्रोतों से बचने का निर्देश भी किया जैन कर्मविज्ञान कर्मानुसार फलप्रदान की बात कहता है ___कदाचित् विवशता से कोई त्रसजीवहिंसा आदि पापाचरण हो जाए तो जैन कर्म विज्ञान उसकी शुद्धि के लिए आलोचना, निन्दना (पश्चाताप), गर्हणा, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान, शुद्धि के लिए आलोचना, निन्दना (पश्चाताप), गर्हणा, प्रतिक्रमण, कायोत्सा, प्रत्यास्थान, भावना, अनुप्रेक्षा, त्याग, तप क्षमापना प्रायश्चित आदि तप बताता है। इसलिए 'डॉ. ए.एस. थियोडोर' के इस भ्रान्त मन्तव्य का खण्डन हो जाता है कि “कर्म सिद्धान्त के न्यायतावाद में दया, पश्चाताप, क्षमा, पापों का शोधन करने का स्थान नहीं है।" २५ जैन कर्म सिद्धान्त कर्म का फल ईश्वर या किसी शक्ति द्वारा प्रदान करने की बात से सर्वथा असहमत है, यही कारण है कि वह नैतिक (शुभ) अनैतिक (अशुभ) कर्मों का फल कर्मानुसार स्वतः प्राप्त होने की बात कहता है। परमात्मा को प्रसन्न करने या उनकी सेवा भक्ति करने मात्र से अनैतिक (पाप) कर्म के फल से कोई बच नहीं सकता। जैनकर्म सिद्धान्त 'दूध का दूध और पानी का पानी' इस प्रकार शुभाशुभ कार्य का न्यायसंगत फल बताता है। कर्मसिद्धान्त के न्याय को लौकिक विधि (कानून) वेत्ता भी कोई चुनौती नहीं दे सकता। इसलिए कर्म चाहे लौकिक (संसारिक) हो या लोकोत्तर, शुभ हो, शुद्ध हो या अशुभ हो, सबको यथायोग्य (न्यायसंगत) फल मिलने का प्रतिपादन जैनकर्मविज्ञान व्यवस्थित ढंग से करता है। इसलिए डॉ. ए.सी. बोरक्वेट के इस मत का भी निराकरण हो जाता है कि सांसारिक न्याय के रूप में कर्मसिद्धान्त अपने आप में निन्दनीय है।" २६ २४. देखें (क) स्थानांगसूत्र नौंवा स्थान (ख) १८ स्थान के लिए देखें समवायांग १८ वां समवाय २५. (क) “आलोयणाएणं......इत्थीवेय-नपुंसयवेयं च न ब बंधइ पुव्वबद्धं चणं निञ्जरेइ।" (ख) “निदंणयाएणं...पच्छाणुतावेणं विरज्झमाणे करण-गुणसेढिं पडिवज्जइ, क. पडिवन्नेयणं अणगारे मोहणिज्जंकम्मं उग्घाएइ।" (ग) “गरहणयाएणं....जीवे अपसत्थेहितो जोगेहितो नियत्तेइ, पसन्थे य पडिवज्जइ।" (घ) “पडिक्कमणेणं...वयछिद्दाणि पिहेइ। पसत्थजोग पडिवन्ने य अणगारे अणंतघाइपज्जवे खवेइ॥” (ड) 'काउसग्गेणं-तीय-पडुपन्नं पायच्छितंविसोहेइ। विसुन्द-पायच्छिते च जीवे निव्वुयहियए-सुहसुहेणं विहरड। (च) पञक्खाणेणं इच्छानिरोहं जणयह-सव्वदत्वेसु विणीय तत्हेसीइभूए विहरइ। (छ) पायच्छिन्त-करणेणं पाबकझविसोहिं जणयइ, बिरइयोर यावि भव...। (ज) खमात्रणयाएणं पहलयणभावं जणयइ।-सव्व पाणजी सत्तेसु मित्तीभावमुवगए भावहिसोहिं काऊण निब्मए भवइ।- उत्तराध्ययन सूत्र २९, सू.५, ६, ७, ११, १२, १३, १६, १७ (झ) Religion and Society Vol. No. XIV No. 4/1967 २६.. Christian Faith and Non Christian Religion- By A.C.Bonquet. P.196 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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