Book Title: Karmasiddhanta ki Upayogita
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

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Page 15
________________ "जिन लोगों को जिंदगी जीने के न्यूनतम साधन उपलब्ध नहीं हो पाते, वे संघर्ष करते हैं। आज वे अभाव का कारण, अपने विगत (इस जन्म में या पूर्वजन्म में पूर्वकृत) कर्मों को न मान कर (न ही अपने जीवन में नीति और धर्म का आचरण करके अशुभ कर्मों को काट कर, शुभकर्मों में संक्रमित करके) सामाजिक व्यवस्था को मानते हैं। (स्वयं अपने जीवन का सुधार न करके, अपने जीवन में नैतिकता और धार्मिकता का पालन एवं पुरुषार्थ न करके) तथा समय और सादगी का जीवन न अपना कर समाज से अपेक्षा रखते हैं कि वह उन्हें जिंदगी जीने की स्थितियाँ मुहैया करावे। यदि ऐसा नहीं हो पाता तो हाथ पर हाथ धर कर बैठने के लिए तैयार नहीं हैं। वे सारी सामाजिक व्यवस्था को नष्ट-भ्रष्ट कर देने के लिए बेताब हैं।" 35 उपर्युक्त मन्तव्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्म सिद्धान्त पूर्वकृत कर्मों को काटने के लिए तथा अशुभ कर्मों का निरोध करने या शुभ में परिणत करने के लिए जिस नैतिकता एवं धर्मिकता (अहिंसा, संयम, तप आदि) के आचरण की बात करता है, वह जिन्हें पसंद नहीं, वे लोग केवल हिंसा, संघर्ष, तोड़फोड़, अनैतिकता एवं दुर्व्यसनों आदि का रास्ता अपनाते हैं, उसका फल तो अशान्ति, हाय हाय, बेचैनी और नारकीय जीवन तथा दुःखदअन्त के सिवाय और क्या हो सकता है? इससे यह समझा जा सकता है कि कर्म सिद्धान्त परिवार, समाज या राष्ट्र आदि में नैतिकता का संवर्धन करने और अनैतिकता से व्यक्ति को दूर रखने, में कितना सहायक हो सकता है? अतः कर्म सिद्धान्त के इन निष्कर्षों को देखते हुए डॉ. जोन मेकेंजी का यह आक्षेप भी निरस्त हो जाता है कि “कर्म सिद्धान्त में ऐसे अनेक कर्मों को भी शुभाशुभ फल देने वाला मान लिया गया है, जिन्हें सामान्य नैतिकदृष्टि से अच्छा या बुरा नहीं कहा जाता।” 25 इस आक्षेप का एक कारण यह भी सम्भव है कि डॉ. मेकेंजी पौर्वात्यि और पाश्चात्य आचारदर्शन के अन्तर को स्पष्ट नहीं समझ पाए। भारतीय आचारदर्शन कर्मसिद्धान्त पर आधारित है, वह अच्छे-बुरे नैतिक अनैतिक आचरण का भेद स्पष्ट करके उनका इहलौकिक पारलौकिक अच्छा या बुरा कर्मफल भी बताता है, साथ ही, वह अनेक प्रकार की धार्मिक क्रियाओं, उपवास, ध्यान, समतायोग साधना आदि को, तथा सप्तकुव्यसन त्याग को एवं मानवता ही नहीं, प्राणिमात्र के प्रति करुना. दया. आत्मीयता आदि को नैतिक आध्यात्मिक दष्टि से विहित व अनिवार्य मान कर इसके विपरीत अनैतिकता तथा क्रूरता, निर्दयता, अमानवता आदि को निषिद्ध मानता है। उसका भी शुभाशुभ कर्म फल बताता है, जबकि पाश्चात्य आचार दर्शन नैतिकता को सिर्फ मानव समाज के पारस्परिक व्यवहार तक ही सीमित करता है। वह न तो सप्तकुव्यसन त्याग आदि नैतिक नियमों को मानता है, नहीं मानवेतर प्राणियों के प्रति आत्मीयता को मानता है। यही कारण है पाश्चात्य जीवन में अनैतिकता और आध्यात्मिक विकास के प्रति उपेक्षा का! यही है नैतिकता के सन्दर्भ में कर्म सिद्धान्त की उपयोगिता के विविध पहलुओं का दिग्दर्शन! 35. बही, पृ. 289 36.. हिन्दु एथिक्स पृ. 218 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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