Book Title: Karm aur Uska Vyapar
Author(s): Mahendrasagar Prachandiya
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 3
________________ कर्म और उसका व्यापार ] [ ६६ इसके साथ ही जीव दया करना, दान करना, संयम पालना, वात्सल्य भाव करना, मुनिजनों की वैय्यावृत्ति (सेवा सूश्रुषा) करना आदि से साता वेदनीय कर्म का आस्रव होता है। मोहनीय कर्म का दो तरह से प्रास्रव होता है-दर्शन और चारित्र । दर्शन मोहनीय कर्म-आस्रव हेतु सच्चे देव, शास्त्र गुरु तज्जन्य धर्म में दोष लगाना होता है और कषायों-क्रोध, मान, माया तथा लोभ की तीव्रता रखना, चारित्र में दोष लगाना तथा मलिन भाव करना चारित्र मोहनीय कर्म का आस्रव होता है। आयु कर्म का सीधा सम्बन्ध चतुर्गतियों में आगत जीव से होता है। बहुत आरम्भ एवं परिग्रह करने से नरकायु का आस्रव होता है। मायाचारी (मन से कुछ, वाणी से कुछ और करनी से कुछ और) से तिर्यचगति का प्रायु प्रास्रव होता है। थोड़ा आरम्भ तथा परिग्रह से मनुष्यायु का प्रास्रव और सम्यक्त्व व्रत पालन, देश संयम, बालतप आदि से देव आयु का आस्रव होता है । नाम कर्म शुभ और अशुभ दृष्टि से दो प्रकार से प्रास्रव होता है । मन, वचन, काय को सरल रखना, धर्मात्मा से विसंवाद नहीं करना, षोडश कारण भावना आदि से शुभ नाम कर्म का आस्रव होता है और कुटिल भाव, झगड़ाकलह आदि से अशुभ नाम कर्म का आस्रव होता है । नीच और ऊँच भेद से गोत्र कर्म का आस्रव दो प्रकार का होता है । परनिन्दा, स्वप्रशंसा करना, पर-गुणों को छिपाना और मिथ्या गुणों का बखान करना आदि से नीच गोत्र का प्रास्रव होता है, जबकि पर-प्रशंसा, अपनी निन्दा, पर-दोषों को ढकना और अपने दोषों को प्रकट करना, गुरुओं के प्रति नम्र वृत्ति रखना, विनय करना आदि से उच्च गोत्र कर्म का आस्रव होता है। दान-दातार को रोकना, आश्रितों को धर्म साधन न करने देना, देवदर्शन, मंदिर के द्रव्य को हड़पना, दूसरों की भोगादि वस्तु या शक्ति में विघ्न डालना आदि से वस्तुतः अन्तराय कर्म का प्रास्रव होता है। इस प्रकार कर्म और उसके व्यापार परक स्थिति का संक्षेप में यहाँ विश्लेषण किया गया है। इन सभी कारणों से आए हुए कर्म पुद्गल-परमाणु आत्मा के साथ एक रूप हो जाते हैं, उसी का नाम बंध है। तीव्र-मंद आदि भावों से होने वाला प्रास्रव योग और कषाय आदि के निमित्त से १०८ भेद रूप भी माना जाता है। मन, वचन तथा काय समारम्भ अर्थात् हिंसादि करने का प्रयत्न अथवा संकल्प । सारंभ अर्थात् हिंसादि करने के साधन जुटाना, प्रारम्भ अर्थात हिंसादि पाप शुरू करने देना, कृत अर्थात् स्वयं करना, कारित अर्थात् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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