Book Title: Karm aur Uska Vyapar
Author(s): Mahendrasagar Prachandiya
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 1
________________ IS ८ कर्म और उसका व्यापार → डॉ० महेन्द्रसागर प्रचंडिया समूह और समुदाय में कर्म के अनेक अर्थ - अभिप्राय प्रचलित हैं । कर्मकारक, क्रिया तथा जीव के साथ बंधने वाले विशेष जाति के पुद्गल - स्कन्ध आदि कर्म के रूप कहे जा सकते हैं । कर्मकारक लोक-प्रसिद्ध भाषा - परिवार में प्रयुक्त रूप प्रसिद्ध है । क्रियाएं समवदान तथा अधः कर्म आदि के भेद से अनेक प्रकार की होती हैं । जीव के साथ बंधने वाले विशेष जाति के पुद्गल स्कन्ध रूप कर्म का जैन सिद्धान्त ही विशेष प्रकार से निरूपण करता है । कर्म का मौलिक अर्थ तो क्रिया ही है । जीव, मन, वचन तथा काय के द्वारा कुछ न कुछ करता है, वह उसकी क्रिया या कर्म है और मन, वचन तथा काय ये तीन उसके द्वार हैं । सांसारिक आत्मा के इन तीन द्वारों की क्रियाओं से प्रतिक्षण सभी आत्म-प्रदेशों में कर्म होते रहते हैं । अनादि काल से जीव का कर्म के साथ सम्बन्ध चला आ रहा है । इन दोनों का पारस्परिक अस्तित्व स्वतः सिद्ध है । मूलतः कर्म को दो भागों में बाँटा गया है - द्रव्य कर्म और भाव कर्म । पुद्गल के कर्मकुल को द्रव्यकर्म कहते हैं और द्रव्यकर्म के निमित्त से जो आत्मा के राग-द्वेष, अज्ञान आदि भाव होते हैं, वे वस्तुतः भावकर्म कहलाते हैं । द्रव्य और भाव भेद से जो श्रात्मा को परतंत्र करता है, दुःख देता है, तथा संसारचक्र में चक्रमण कराता है वह समवेत रूप में कर्म कहलाता है । अनन्त काल से कर्म अनन्त हैं । कर्मों का एक कुल होता है । घातिया और घातिया भेद से उन्हें दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है । ये शब्द भी अपना पारिभाषिक अर्थ रखते हैं । जीव के गुणों का पूर्णतः घात करने वाले कर्म घातिया कर्म कहलाते हैं और जिनके द्वारा जीव-गुणों का पूर्णतः घात नहीं हो पाता, उन्हें अघातिया कर्म कहा जाता है । घातिया कर्म - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अन्तराय और अघातिया कर्म - श्रायु, नाम, गोत्र तथा वेदनीय मिलकर आठ प्रकार की कर्म जातियाँ बनाते हैं । अब यहाँ प्रत्येक कर्म की प्रकृति के विषय में संक्षेप में चर्चा करना आवश्यक है | आत्मा अनन्त ज्ञान रूप है । उसके ज्ञान गुण को प्रच्छन्न करनेवाला कर्म ज्ञानावरण कर्म कहलाता है । इसी प्रकार उसके दर्शन गुण को प्रच्छन्न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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