Book Title: Karm aur Samajik Sandarbh
Author(s): Mahavir Sharan Jain
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 4
________________ २८८ ] [ कर्म सिद्धान्त भी प्राणी को मारना तथा दुःख पहुँचाना हिंसा है तथा किसी भी प्राणी को न मारना तथा उसे दु:ख न पहुँचाना ही अहिंसा है । इसका व्यक्ति की मानसिकता के साथ सम्बन्ध है । इस कारण महावीर ने कहा कि अप्रमत्त आत्मा अहिंसक है । एक किसान अपनी क्रिया करते हुए यदि अनजाने जीव हिंसा कर भी देता है तो भी हिंसा की भावना उसके साथ जुड़ती नहीं है । भले ही हम किसी का वध न करें, किन्तु किसी का वध करने का विचार यदि हमारे मस्तिष्क में आ जाता है तो उसका सम्बन्ध हमारी मानसिकता से सम्पृक्त हो जाता है । इसी कारण कहा गया है कि राग-द्वेष का अप्रादुर्भाव अहिंसा एवं उसका प्रादुर्भाव हिंसा है । राग-द्वेष रहित प्रवृत्ति में अशक्य कोटि के प्राणियों का प्राणवध हो जाए तो भी नैश्चयिक हिंसा नहीं होती, राग-द्वेष सहित प्रवृत्ति से प्राणवध न होने पर भी हिंसा होती है । हिंसा धर्म का प्रतीक है तथा अहिंसा धर्म का । हिंसा से पाशविकता का जन्म होता है, अहिंसा से मानवीयता एवं सामाजिकता का । दूसरों का नष्ट करने की नहीं, अपने कल्याण के साथ-साथ दूसरों का भी कल्याण करने की प्रवृत्ति ने मनुष्य को सामाजिक एवं मानवीय बनाया है । प्रकृति से ह आदमी है । संसारी है । राग-द्वेष युक्त है । कर्मों के बन्धनों से जकड़ा हुआ है । उसके जीवन में राग के कारण लोभ एवं काम की तथा द्वेष के कारण क्रोध एवं वैर की वृत्तियों का संचार होता है । लोभ के कारण बाह्य पदार्थों में हमारी आसक्ति एवं अनुरक्ति बढ़ती जाती है । काम से माया एवं मोह बढ़ता है । माया से दम्भ अहंकार एवं प्रमाद बढ़ता है । मोह से आसक्त अज्ञानी साधक विपत्ति प्राने पर धर्म के प्रति अवज्ञा करते हुए पुनः पुनः संसार की ओर लौ पड़ते हैं । क्रोध एवं वैर के कारण संघर्ष एवं कलह का वातावरण पनपता है । एक ओर अहंकार से क्रोध उपजता है, दूसरी ओर अहंकार के कारण क्रोध का विकास होता है । क्रोध के अभ्यास से व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है । उसका जीवन दर्शन विध्वंसात्मक हो जाता है । उसकी मानवीयता एवं सामाजिकता नष्ट हो जाती है । धार्मिक चेतना एवं नैतिकता बोध से व्यक्ति में मानवीय भावना का विकास होता है । उसका जीवन सार्थक होता है । आज व्यक्ति का धर्मगत आचरण पर से विश्वास उठ गया है। पहले के व्यक्ति की जीवन की निरन्तरता एवं समग्रता पर आस्था थी । उसका यह विश्वास था कि व्यक्ति के कर्म का प्रभाव उसके अगले जन्म पर पड़ता है । वह यह मानता था कि वर्तमान जीवन की हमारी सारी समस्याएँ हमारे अतीत के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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