Book Title: Karm aur Purusharth
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 3
________________ १०० ] [ कर्म सिद्धान्त महावीर ने कर्म का जो दर्शन दिया, उसे सही नहीं समझा गया। अन्यथा कर्मवाद के विषय में इतनी गलत मान्यताएँ नहीं होती। आज भारतीय मानस में कर्मवाद और भाग्यवाद की इतनी भ्रान्तपूर्ण मान्यताएं घर कर गई हैं कि आदमी उन मान्यताओं के कारण बीमारी भी भुगतता है, कठिनाइयाँ भी भुगतता है और गरीबी भी भूगतता है। गरीब आदमी यही सोचता है कि भाग्य में ऐसा ही लिखा है, अतः ऐसे ही जीना है। बीमार आदमी भी यही सोचता है कि भाग्य में बीमारी का लेख लिखा हुआ है, अतः रुग्णावस्था में ही जीना है । वह हर कार्य में कर्म का बहाना लेता है और दुःख भोगता जाता है। आज उसकी आदत ही बन गई है कि वह प्रत्येक कार्य में बहाना ढूढ़ता है। एक न्यायाधीश के सामने एक मामला आया। लड़ने वाले थे पति और पत्नी/पत्नी ने शिकायत की कि मेरे पति ने मेरा हाथ तोड़ डाला। जज ने पति से पूछा-"क्या तुमने हाथ तोड़ा है ?" उसने कहा-"हाँ ! मैं शराब पीता हूँ। गुस्सा आ गया और मैंने पत्नी का हाथ तोड़ डाला।" जज ने सोचा-घरेलू मामला है। पति को समझाया, मारपीट न करने की बात कही और केस समाप्त कर दिया। कुछ दिन बीते । उसी जज के समक्ष वे दोनों पति-पत्नी पुनः उपस्थित हुए । पत्नी ने शिकायत के स्वर में कहा-"इन्होंने मेरा दूसरा हाथ भी तोड़ डाला है।" जज ने पति से पूछा । उसने अपना अपराध स्वीकार करते हुए कहा-"जज महोदय ! मुझे शराब पीने की आदत है । एक दिन मैं शराब पीकर घर आया। मुझे देखते ही पत्नी बोली-शराबी आ गया। शराब की भाँति मैं उस गाली को भी पी गया। इतने में ही पत्नी फिर बोली-न्यायाधीश भी निरा मूर्ख है, आज ये कारावास में होते तो मेरा दूसरा हाथ नहीं टूटता। जब पत्नी ने यह कहा तब मैं अपने आपे से बाहर हो गया। मैंने स्वयं का अपमान तो धैर्यपूर्वक सह लिया पर न्यायाधीश का अपमान नहीं सह सका और मैंने इसका दूसरा हाथ भी तोड़ डाला । यह मैंने न्यायाधीश के सम्मान की रक्षा के लिए किया । मैं अपराधी नहीं हूँ।" आदमी को बहाना चाहिए । बहाने के आधार पर वह अपनी कमजोरियाँ छिपाता है । और इस प्रक्रिया से अनेक समस्याएँ खड़ी होती हैं। यदि आदमी साफ होता, बहानेबाजी से मुक्त होता तो समस्याएँ इतनी नहीं होती। कर्म और भाग्य का बहाना भी बड़ा बहाना बन गया है। इसके सहारे अनेक समस्याएँ उभर रही हैं । इन समस्याओं का परिणाम आदमी को स्वयं भुगतना पड़ रहा है । वह परिणामों को भोगता जा रहा है। जब दृष्टिकोण, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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