Book Title: Karm aur Purusharth Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 6
________________ कर्म और पुरुषार्थ ] [ १०३ से उन्हें बहुत मूल्यवान् मानता हूँ । सामान्य आदमी इतना ही जानता है कि आदमी कर्म से बंधा हुआ है । अतीत से बंधा हुआ है । महावीर ने कहा - " किया हुआ कर्म भुगतना पड़ेगा ।" यह सामान्य सिद्धान्त है । इसके कुछ अपवाद सूत्र भी हैं । कर्मवाद के प्रसंग में भगवान् महावीर ने उदीरणा, संक्रमण, उद्वर्तन और अपवर्तन के सूत्र भी दिए। उन्होंने कहा - कर्म को बदला जा सकता है, [ कर्म को तोड़ा जा सकता है], कर्म को पहले भी किया जा सकता है, कर्म को बाद में भी किया जा सकता है । यदि पुरुषार्थं सक्रिय हो, जागृत हो तो हम जैसा चाहें वैसे कर्म को उसी रूप में बदल सकते हैं । संक्रमण का सिद्धान्त कर्मवाद की बहुत बड़ी वैज्ञानिक देन है । मैंने इस पर जैसे-जैसे चिन्तन किया, मुझे प्रतीत हुआ कि आधुनिक "जीव-विज्ञान" की जो नई वैज्ञानिक धारणाएँ और मान्यताएँ आ रही हैं, वे इसी संक्रमण सिद्धान्त की उपजीवी हैं । प्राज वैज्ञानिक इस प्रयत्न लगे हुए हैं कि "जीन" को यदि बदला जा सके तो पूरी पीढ़ी का कायाकल्प हो सकता है । यदि ऐसी कोई टेक्निक प्राप्त हो जाए, कोई सूत्र हस्तगत हो जाए, जिससे "जीन" में परिवर्तन लाया जा सके तो अकल्पित क्रान्ति घटित हो सकती है । यह " जीन" व्यक्तित्व निर्माण का घटक तत्त्व है । 1 संक्रमण का सिद्धान्त जीन को बदलने का सिद्धान्त है । संक्रमण से जीन को बदला जा सकता है । कर्म परमाणुनों को बदला जा सकता है । बड़ा आश्चर्य हुआ जब एक दिन हमने इस सूत्र को समझा। बड़े-बड़े तत्त्वज्ञ मुनि भी इस सिद्धान्त को आश्चर्य से देखने लगे । एक घटना याद आती है । मैं अपनी पहली पुस्तक "जीव अजीव" लिख रहा था । उस समय हमारे संघ के प्रागमज्ञ मुनि रंगलालजी [बाद में वे संघ से पृथक् हो गए ] उनके सामने मेरी पुस्तक का एक अंश आया । उसमें चर्चा थी कि पाप को पुण्य में बदला जा सकता है और पुण्य को पाप में बदला जा सकता है। मुनि रंगलालजी ने कहा - यह नहीं हो सकता। इस पर पुनश्चिन्तन करना चाहिए। मैंने सोचा - श्रागम के विशेष अध्येता मुनि ऐसा कह रहे हैं, मुझे पुनः सोचना चाहिए। मैंने सोचा, पर मेरे चिन्तन में वही बात आ रही थी। मैंने संक्रमण पर और गहराई से चिन्तन किया । पर निष्कर्ष वही श्रा रहा था, जो मैंने लिखा था। मैंने उन मुनि से कहा – क्या यह सम्भव नहीं है कि किसी ने पाप कर्म का बंध किया, किन्तु बाद में वही व्यक्ति अच्छा पुरुषार्थ करता है तो क्या पाप, जो कुफल देने वाला है, वह पुण्य के रूप में नहीं बदल जाएगा ? इसी प्रकार एक व्यक्ति ने पुण्य कर्म का बंध किया, किन्तु बाद में इतने बुरे कर्म किए, बुरा आचरण और व्यवहार किया, तो क्या वे पुण्य के परमाणु पाप के रूप में नहीं बदल जाएँगे ? उन्होंने कहा- ऐसा तो हो सकता है । मैंने कहा- यही तो मैंने लिखा है । यही तो - संक्रमण का सिद्धान्त है । एक कथा के माध्यम से यह बात और स्पष्टता से समझ में आ जाती है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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