Book Title: Karm Siddhant ek Samikashtamak Adhyayan
Author(s): Shrutidarshanashreeji
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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Page 4
________________ जैसे कि सहजतया कर्म करने में आत्मा स्व- जाने वाले कर्म थोड़े समय के लिए भोगे जाय कितु ! तन्त्र है, वह चाहे जैसे भाग्य का निर्माण कर सबको भोगना ही पड़ता है। सकती है, इस प्रकार आत्मा ही स्वयं के भाग्य का जैनदर्शन की कर्म के बन्ध, उदय की तरह कर्म निर्माता है न कि ईश्वर के हाथ को कठपुतली। क्षय को प्रक्रिया भी सयुक्तिक है / स्थिति के परिकर्मों पर विजय प्राप्त करके शुद्ध बनकर मुक्त हो पाक होने पर कर्म उदयकाल में अपना वेदन कराने सकती है। किन्तु कभी-कभी जनित कर्म और के बाद झड़ जाते हैं / यह तो कर्मों का सहज क्षय बाह्य निमित्त को पाकर ऐसी परतन्त्र बन जाती है। इसमें कर्मों को परम्परा का प्रवाह नष्ट नहीं है कि वह जैसा चाहे वैसा कभी भी नहीं कर होता है / पूर्व कर्म नष्ट हो जाते हैं लेकिन साथ सकती है, जैसे कोई आत्मा सन्मार्ग पर बढ़ना ही नवीन कर्मों का बन्ध चाल रहता है। इस चाहती है,किन्तु कर्मोदय की बलवत्ता से उस मार्ग शृंखला को तोड़ने के लिए तप, त्याग, संयम आदि पर चल नहीं पाती हैं, फिसल जाती है, यह है प्रयत्नों की आवश्यकता है। संयम, संवर से नये आत्मा का कर्तत्व काल में स्वातन्त्र्य और पार- आते कर्मबन्ध बन्द होगा, तप द्वारा जो कर्म रहे / तन्त्र्य / हैं, उनका क्षय होगा। इस प्रकार पुरुषार्थ से आत्मा ) कर्म के बन्धनों से मुक्त हो सकती है। कर्म तत्व के 13 कर्म करने के बाद आत्मा पराधीन-कर्माधीन सम्बन्ध में जैन दर्शन की विशेषताएँ हैं कि कर्म के 1. ही बन जाती है, ऐसा नहीं / उस स्थिति में भी साथ आत्मा का वन्ध कैसे है ? किन कारणों से आत्मा का स्वातन्त्र्य सुरक्षित है। वह चाहे तो होता है ? किस कारण से कर्म में कैसी शक्ति अशुभ को शुभ में परिवर्तित कर सकती है, स्थिति उत्पन्न होती है, आत्मा के साथ कितने समय तक और रस का ह्रास कर सकती है। विपाक (फलो- कर्म लगे रहते हैं, कब फल देते हैं ? इसका विस्तार दय) का अनुदय कर सकती है, फलोदय को अन्य यहाँ नहीं करते हुए विराम लेती हूँ, क्योंकि लेख रूप में परिवर्तित कर सकती है / इसमें आत्मा का की मर्यादा है। कर्म सिद्धान्त सागर-सा विशाल है स्वातन्त्र्य मुखर है / परतन्त्रता इस दृष्टि से है कि उसे गागर में भरना बहुत हो कठिन है। इस जिन कर्मों को ग्रहण किया है, उन्हें बिना भोगे प्रकार जैन दर्शन में वैज्ञानिक रूप से कर्म सिद्धान्त मुक्ति नहीं होती। भले ही सुदीर्घ काल तक भोगे का निरूपण किया गया है / -卐 जगत में ऐसा कोई बलवान नहीं है जो उगते हुए सूर्य को रोक सकता हो, वैसे ही लोक में ऐसा कोई नहीं जो उदय में आये हुए कर्म को रोक सकता हो। -भग० आ०१७४० 212 212 तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 20 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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