Book Title: Karm Siddhant ek Samikashtamak Adhyayan
Author(s): Shrutidarshanashreeji
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-सिद्धान्त भारतीय दर्शन का आधार है, नाव है । प्रायः सभी दर्शनों में कर्म को किसी न किसी रूप में माना गया है, भले ही कर्म के स्वरूप निर्णय में मतैक्य न हो, पर अध्यात्मसिद्धि कर्ममुक्ति पर निर्भर है. इसमें मतभिन्नता नहीं है। प्रत्येक दर्शन में किसी न किसी रूप में कर्म की मीमांसा की है, जैन दर्शन में इसका चिन्तन बहुत ही गहराई. विस्तार एवं सूक्ष्मता से किया गया है। ____कर्म का स्वरूप-लौकिक भाषा में तो साधारण तौर से जो कुछ किया जाता है उसे कर्म कहते हैं। जैसे-खाना. पीना. चलना, बोलना (K । कर्म-सिद्धान्त : इत्यादि । श्रुति और स्मृति में भी यही अर्थ किया गया है। उपनिषद् और वेदान्त सूत्रों के अनुसार कर्म सूक्ष्म शरीर को चिपकते हैं और एक समीक्षात्मक जिससे जीव को अवश्य जन्म-मरण करने पड़ते हैं। सांख्य दर्शन में सत्व, रजस, तमस गुण पर कर्म निर्भर हैं। अध्ययन परलोकवादी दार्शनिकों का मत है कि हमारा प्रत्येक कार्यअच्छा हो या बुरा हो अपना संस्कार छोड़ जाता है। जिसे नैयायिक और वैशेषिक धर्माधर्म कहते हैं। योग उसे आशय और अनुशय के नाम से सम्बोधित करते हैं। उक्त ये भिन्न-भिन्न नाम कर्म के अर्थ को ही स्पष्ट करते हैं तात्पर्य यह है कि जन्म जरा मरण रूप संसार के चक्र में पड़े हुए प्राणी, अज्ञान, अविद्या, मिथ्यात्व से आलिप्त हैं जिसके कारण वे संसार का वास्तविक स्वरूप नहीं समझ सकते. अतः उनका जो भी कार्य होता है वह अज्ञानमूलक है, रागद्वेष का दुराग्रह होता है, इसलिए उनका प्रत्येक कार्य आत्मा के बन्धन का कारण होता है। -साध्वो श्रु तिदर्शना सारांश यह है कि उन दार्शनिकों के अनुसार कर्म नाम क्रिया या - प्रवृत्ति का है और उस प्रवृत्ति के मूल में रागद्वेष रहते हैं। यद्यपि एम. ए. प्रवृत्ति क्षणिक होती है किन्तु उसका संस्कार फल-काल तक स्थायी रहता है जिसका परिणाम यह होता है कि संस्कार से प्रवृत्ति और प्रवत्ति से संस्कार की परम्परा चलती रहती है और इसी का नाम संसार है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार कर्म का स्वरूप किसो अंश में उक्त मतों से भिन्न है। __ जैनदर्शन में कर्म केवल संस्कार मात्र ही नहीं है किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है, जो जीव की राग-द्वेषात्मक क्रिया से आकर्षित होकर जीव के साथ संश्लिष्ट हो जाता है, उसी तरह घुल-मिल जाता है जैसे दूध में पानी । यद्यपि वह पदार्थ है तो भौतिक, किन्तु उसका कर्म नाम इसलिए रूढ हो गया है कि जीव के कर्म अर्थात क्रिया के कारण तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन २०६ (Rdx0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Cred Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकृष्ट होकर वह जीव के साथ बन्ध जाता है। और उदय ये तीन अवस्थाएँ मानी हैं। इनके नामों इस प्रकार जैनदर्शन में कर्म को सिर्फ क्रिया- में अन्तर भी हो सकता है। लेकिन कर्म के बन्ध, अच्छे बुरे कार्य इतना ही नहीं किन्तु जीव के कर्मों उदय व सत्ता के विषय में किसी प्रकार का विवाद के निमित्त से जो पुद्गल परमाणु आकृष्ट होकर नहीं है । लेकिन विवाद है कर्म के स्वयं जीव द्वारा उसके साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं, वे पुद्गल पर- फल भोगने में या दूसरे के द्वारा भोग कराये जाने १ माणु भी कर्म कहलाते हैं। में, जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व में, उसके सदात्मक ___ संसार के सभी प्राणियों में अनेक प्रकार की रूप से बने रहने के विषय में। विषमताएँ और विविधताएँ दिखलाई देती हैं। सांख्य के सिवाय प्रायः सभी वैदिक दर्शन किसी इसके कारण के रूप में सभो आत्मवादी दर्शनों ने न किसी रूप से आत्मा को ही कर्म का कर्ता और कर्म-सिद्धान्त को माना है। इतना ही नहीं अनात्म- उसके फल का भोक्ता मानते हैं किन्तु सांख्य भोक्ता वादी बौद्धदर्शन में कर्म-सिद्धान्त को मानने के तो पुरुष को मानता है और कर्ता प्रधान प्रकृति को सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कहा है कि-"सभी जीव कहता है । इस प्रकार कुछ तत्वचिन्तकों का मंतव्य ६ अपने कर्मों से ही फल भोग करते हैं सभी जीव है कि जीव कर्म करने में तो स्वतन्त्र है लेकिन अपने कर्मों के आप मालिक हैं, अपने कर्मों के अनु- उसका फलभोग ईश्वर द्वारा कराया जाता है सार ही नाना योनियों में उत्पन्न होते हैं, अपना कर्म अर्थात् जीव अपने कर्मों का फल भोगने में परतन्त्र ही अपना बन्धु है, अपना कर्म ही अपना आश्रय है, है-इस तरह कर्म फल देने की निर्णायक शक्ति कर्म से ही ऊँचे और नीचे हुए हैं ।" (मिलिंद प्रश्न ईश्वर है, उसके निर्णय के अनुसार जीव कर्मफल पृष्ठ ८०-८१) का भोग करता है। इसी तरह ईश्वरवादी भी प्रायः इसमें एकमत ___ जैसा कि महाभारत में लिखा हैहै कि "अज्ञोजन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुःखयो । "करम प्रधान विश्व करि राखा, ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वम्रमेव वा ॥" जो जस करहि तो तस फल चाखा ॥" अर्थात् अज्ञ प्राणी अपने सुख और दुःख का प्राणी जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल स्वामी नहीं है। ईश्वर के द्वारा प्रेरित होकर वह भोगना पड़ता है-यही कर्मसिद्धान्त का आशय स्वर्ग अथवा नरक में जाता है। है । अंग्रेजी में कहा है___"As you sow so you reap." भगवद्गीता में भी लिखा है-- 'लभते च ततः कामान् मयैव विहितान हितान् ।' मैं अर्थात् ईश्वर उपर्युक्त प्रकार से कर्म-सिद्धान्त के बारे में ___ जिसका निश्चय कर देता है, वही इच्छित फल है ईश्वरवादियों और अनीश्वरवादियों, आत्मवादियों मनुष्य को मिलता है। और अनात्मवादियों में मतैक्य होने पर भी कर्म के स्वरूप और उसके फलदान के सम्बन्ध में मौलिक बौद्ध दर्शन ईश्वर को कर्मभोग कराने में सहामतभेद हैं। यक नहीं मानता किन्तु वह जीव को त्रिकाल स्थायी अब हम कर्म के फलदान के सम्बन्ध में देखेंगे। तत्व न मानकर क्षणिक मानता है। प्रायः सभी आस्तिकवादी दार्शनिकों ने कर्म के उक्त दृष्टियाँ एकांगी हैं क्योंकि कृतकृत्य ईश्वर अस्तित्व को स्वीकार करके उसकी बध्यमान, सत् द्वारा सृष्टि में हस्तक्षेप करने से उसकी स्वतन्त्रता २१० तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ eravate & Personal Use Only i Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) ( एवं निष्पक्षता में बाधा पड़ती है। स्वयं जीव के यदि ईश्वर को फलदाता माना जाये तो जहाँ आत्मस्वातन्त्र्य की हानि होती है। यदि जीव को एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का घात करता है, वहाँ सिर्फ वर्तमान क्षणस्थायी माना जाय तो कर्म- घातक को दोष का भागी नहीं होना चाहिए, विपाक की उपपत्ति नहीं बन सकती क्योंकि जिस क्योंकि उस मनुष्य के द्वारा ईश्वर मरने वाले को क्षण वाली आत्मा ने कर्म किया है उसी क्षण वाली मृत्यु का दण्ड दिलाता है। जैसे राजा जिन पुरुषों आत्मा को यह कर्म का फल मिल रहा है यह नहीं के द्वारा अपराधियों को दण्ड दिलाता है, वे पुरुष हो सकेगा क्योंकि वे क्षणिक मानते हैं। जड़ पदार्थ अपराधी नहीं कहे जाते क्योंकि वे राजा की आज्ञा चेतन के अभाव में फल भोग नहीं कर सकते हैं। का पालन करते हैं। यह कार्य तो कृतकर्म भोगी पुनर्जन्मवान स्थायी- इसी तरह किसी का घात करने वाला घातक तत्व ही करता है। इस प्रकार से त्रिकालस्थायी भी जिसका घात करता है, उसके पूर्वकृत कर्मों का स्वतन्त्र जीवतत्व का अस्तित्व और उसे अपने ही फल भगवाता है. क्योंकि ईश्वर ने उसके पर्वकृत सुख-दुःख का कर्ता, भोक्ता बताना ही कर्म-सिद्धान्त कर्मों की यही सजा नियत की होगी, तभी तो का प्रयोजन है। उसका वध किया गया है। यदि कहा जाय कि जैनदर्शन ईश्वर को सष्टि का नियंता नहीं मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है अतः घातक का मानता है, अतः कर्मफल देने में भी उसका हाथ कार्य ईश्वर-प्रेरित नहीं है किन्तु उसकी स्वतन्त्र । नहीं है । कर्म अपना फल स्वयं देते हैं, उनके लिये इच्छा का परिणाम है तो कहना होगा कि संसार अन्य न्यायाधीश की आवश्यकता नहीं है। जैसे दशा में कोई भी प्राणी वस्तुतः स्वतन्त्र नहीं, सभी शराब नशा पैदा करती है और दूध ताकत देता है अपने-अपने कर्मों से बँधे हए हैं। पर जो मनुष्य शराब पीता है, उसे बेहोशी होती है कर्मणा बध्यते जन्तु (महाभारत) और कर्म की और जो दूध पीता है, उसके शरीर में पुष्टता आती अनादि परम्परा है । ऐसी स्थिति में 'बुद्धिकर्मानुहै। शराब या दूध पीने के बाद यह आवश्यकता सारिणी' अर्थात् कर्म के अनुसार प्राणी की बुद्धि नहीं रहती है कि उसका फल देने के लिए दूसरी होती है, के न्यायानुसार किसी भी काम को करने नियामक शक्ति हो । इसी प्रकार जीव के प्रत्येक या न करने के लिए मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है। इस कायिक, वाचिक, मानसिक परिस्पन्द से जिन कर्म स्थिति में यह कहा जाय कि कोई भी व्यक्ति मुक्ति पुद्गलों का बन्ध होता है, उन कर्म परमाणुओं में प्राप्त नहीं कर सकेगा क्योंकि जीव कर्म से बंधा भी शराब और दूध की तरह शुभ या अशुभ करने हुआ है और कर्म के अनुसार जीव की बुद्धि होती की शक्ति रहती है। जो चैतन्य के सम्बन्ध से है। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि कर्म ११ व्यक्त होकर उस पर अपना प्रभाव दिखलाती है अच्छे भी होते हैं और बुरे भी होते हैं । अतः अच्छे 1 और उसके प्रभाव से मुग्ध हुआ जीव ऐसे काम कर्म का अनुसरण करने वाली बुद्धि मनुष्य को करता है जो उसे सुखदायक और दुःखदायक होते सन्मार्ग पर ले जाती है और उससे मुक्ति लाभ हो हैं । यदि कर्म करते समय जीव के भाव अच्छे होते सकता है, और बुरे कर्म का अनुसरण करने वाली हैं तो बंधने वाले कर्म परमाणुओं पर अच्छा प्रभाव बुद्धि कुमार्ग पर ले जाती है जिससे कर्मबन्ध होता पड़ता है और कालान्तर में उससे अच्छा फल है। ऐसी दशा में बुद्धि के कर्मानुसारिणी होने से मिलता है तथा यदि भाव बुरे हों तो बुरा असर मुक्ति लाभ में कोई बाधा नहीं आती है, आत्मा में पड़ता है और कालान्तर में फल भी बुरा ही कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व इन दोनों अवसरों मिलता है। पर स्वातंत्र्य और पारतंत्र्य फलित होते हैं। - - २११ । तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन (( 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे कि सहजतया कर्म करने में आत्मा स्व- जाने वाले कर्म थोड़े समय के लिए भोगे जाय कितु ! तन्त्र है, वह चाहे जैसे भाग्य का निर्माण कर सबको भोगना ही पड़ता है। सकती है, इस प्रकार आत्मा ही स्वयं के भाग्य का जैनदर्शन की कर्म के बन्ध, उदय की तरह कर्म निर्माता है न कि ईश्वर के हाथ को कठपुतली। क्षय को प्रक्रिया भी सयुक्तिक है / स्थिति के परिकर्मों पर विजय प्राप्त करके शुद्ध बनकर मुक्त हो पाक होने पर कर्म उदयकाल में अपना वेदन कराने सकती है। किन्तु कभी-कभी जनित कर्म और के बाद झड़ जाते हैं / यह तो कर्मों का सहज क्षय बाह्य निमित्त को पाकर ऐसी परतन्त्र बन जाती है। इसमें कर्मों को परम्परा का प्रवाह नष्ट नहीं है कि वह जैसा चाहे वैसा कभी भी नहीं कर होता है / पूर्व कर्म नष्ट हो जाते हैं लेकिन साथ सकती है, जैसे कोई आत्मा सन्मार्ग पर बढ़ना ही नवीन कर्मों का बन्ध चाल रहता है। इस चाहती है,किन्तु कर्मोदय की बलवत्ता से उस मार्ग शृंखला को तोड़ने के लिए तप, त्याग, संयम आदि पर चल नहीं पाती हैं, फिसल जाती है, यह है प्रयत्नों की आवश्यकता है। संयम, संवर से नये आत्मा का कर्तत्व काल में स्वातन्त्र्य और पार- आते कर्मबन्ध बन्द होगा, तप द्वारा जो कर्म रहे / तन्त्र्य / हैं, उनका क्षय होगा। इस प्रकार पुरुषार्थ से आत्मा ) कर्म के बन्धनों से मुक्त हो सकती है। कर्म तत्व के 13 कर्म करने के बाद आत्मा पराधीन-कर्माधीन सम्बन्ध में जैन दर्शन की विशेषताएँ हैं कि कर्म के 1. ही बन जाती है, ऐसा नहीं / उस स्थिति में भी साथ आत्मा का वन्ध कैसे है ? किन कारणों से आत्मा का स्वातन्त्र्य सुरक्षित है। वह चाहे तो होता है ? किस कारण से कर्म में कैसी शक्ति अशुभ को शुभ में परिवर्तित कर सकती है, स्थिति उत्पन्न होती है, आत्मा के साथ कितने समय तक और रस का ह्रास कर सकती है। विपाक (फलो- कर्म लगे रहते हैं, कब फल देते हैं ? इसका विस्तार दय) का अनुदय कर सकती है, फलोदय को अन्य यहाँ नहीं करते हुए विराम लेती हूँ, क्योंकि लेख रूप में परिवर्तित कर सकती है / इसमें आत्मा का की मर्यादा है। कर्म सिद्धान्त सागर-सा विशाल है स्वातन्त्र्य मुखर है / परतन्त्रता इस दृष्टि से है कि उसे गागर में भरना बहुत हो कठिन है। इस जिन कर्मों को ग्रहण किया है, उन्हें बिना भोगे प्रकार जैन दर्शन में वैज्ञानिक रूप से कर्म सिद्धान्त मुक्ति नहीं होती। भले ही सुदीर्घ काल तक भोगे का निरूपण किया गया है / -卐 जगत में ऐसा कोई बलवान नहीं है जो उगते हुए सूर्य को रोक सकता हो, वैसे ही लोक में ऐसा कोई नहीं जो उदय में आये हुए कर्म को रोक सकता हो। -भग० आ०१७४० 212 212 तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 20 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal use only