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आकृष्ट होकर वह जीव के साथ बन्ध जाता है। और उदय ये तीन अवस्थाएँ मानी हैं। इनके नामों इस प्रकार जैनदर्शन में कर्म को सिर्फ क्रिया- में अन्तर भी हो सकता है। लेकिन कर्म के बन्ध, अच्छे बुरे कार्य इतना ही नहीं किन्तु जीव के कर्मों उदय व सत्ता के विषय में किसी प्रकार का विवाद के निमित्त से जो पुद्गल परमाणु आकृष्ट होकर नहीं है । लेकिन विवाद है कर्म के स्वयं जीव द्वारा उसके साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं, वे पुद्गल पर- फल भोगने में या दूसरे के द्वारा भोग कराये जाने १ माणु भी कर्म कहलाते हैं।
में, जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व में, उसके सदात्मक ___ संसार के सभी प्राणियों में अनेक प्रकार की रूप से बने रहने के विषय में। विषमताएँ और विविधताएँ दिखलाई देती हैं। सांख्य के सिवाय प्रायः सभी वैदिक दर्शन किसी इसके कारण के रूप में सभो आत्मवादी दर्शनों ने न किसी रूप से आत्मा को ही कर्म का कर्ता और कर्म-सिद्धान्त को माना है। इतना ही नहीं अनात्म- उसके फल का भोक्ता मानते हैं किन्तु सांख्य भोक्ता वादी बौद्धदर्शन में कर्म-सिद्धान्त को मानने के तो पुरुष को मानता है और कर्ता प्रधान प्रकृति को सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कहा है कि-"सभी जीव कहता है । इस प्रकार कुछ तत्वचिन्तकों का मंतव्य ६ अपने कर्मों से ही फल भोग करते हैं सभी जीव है कि जीव कर्म करने में तो स्वतन्त्र है लेकिन अपने कर्मों के आप मालिक हैं, अपने कर्मों के अनु- उसका फलभोग ईश्वर द्वारा कराया जाता है सार ही नाना योनियों में उत्पन्न होते हैं, अपना कर्म अर्थात् जीव अपने कर्मों का फल भोगने में परतन्त्र ही अपना बन्धु है, अपना कर्म ही अपना आश्रय है, है-इस तरह कर्म फल देने की निर्णायक शक्ति कर्म से ही ऊँचे और नीचे हुए हैं ।" (मिलिंद प्रश्न ईश्वर है, उसके निर्णय के अनुसार जीव कर्मफल पृष्ठ ८०-८१)
का भोग करता है। इसी तरह ईश्वरवादी भी प्रायः इसमें एकमत ___ जैसा कि महाभारत में लिखा हैहै कि
"अज्ञोजन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुःखयो । "करम प्रधान विश्व करि राखा,
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वम्रमेव वा ॥" जो जस करहि तो तस फल चाखा ॥"
अर्थात् अज्ञ प्राणी अपने सुख और दुःख का प्राणी जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल स्वामी नहीं है। ईश्वर के द्वारा प्रेरित होकर वह भोगना पड़ता है-यही कर्मसिद्धान्त का आशय स्वर्ग अथवा नरक में जाता है। है । अंग्रेजी में कहा है___"As you sow so you reap."
भगवद्गीता में भी लिखा है-- 'लभते च ततः
कामान् मयैव विहितान हितान् ।' मैं अर्थात् ईश्वर उपर्युक्त प्रकार से कर्म-सिद्धान्त के बारे में
___ जिसका निश्चय कर देता है, वही इच्छित फल
है ईश्वरवादियों और अनीश्वरवादियों, आत्मवादियों
मनुष्य को मिलता है। और अनात्मवादियों में मतैक्य होने पर भी कर्म के स्वरूप और उसके फलदान के सम्बन्ध में मौलिक
बौद्ध दर्शन ईश्वर को कर्मभोग कराने में सहामतभेद हैं।
यक नहीं मानता किन्तु वह जीव को त्रिकाल स्थायी अब हम कर्म के फलदान के सम्बन्ध में देखेंगे। तत्व न मानकर क्षणिक मानता है। प्रायः सभी आस्तिकवादी दार्शनिकों ने कर्म के उक्त दृष्टियाँ एकांगी हैं क्योंकि कृतकृत्य ईश्वर अस्तित्व को स्वीकार करके उसकी बध्यमान, सत् द्वारा सृष्टि में हस्तक्षेप करने से उसकी स्वतन्त्रता
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तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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