Book Title: Kanhadde Prabandh Sanskrutik Drushti se
Author(s): Bhogilal J Sandesara
Publisher: Z_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf

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Page 2
________________ सोमनाथ शिवलिंगके टुकड़े लेकर गुजरातमेंसे जब वापस लौट रहा था उस समय इसपर आक्रमण कर प्रचण्ड सेनाको लेकर अलाउद्दीन द्वारा जालौरके चारों ओर रहने के बाद एक विश्वासघाती राजपूतकी हीनता के कारण गढ़ जोहर - अन्य कुछेक उपकथाओंको छोड़ देनेपर कान्हड़दे प्रबन्धका कान्हड़देव द्वारा उसका पराजय, अन्तमें घेरा डालना, इम घेरेके अनेक वर्षों तक (किले) का पतन और राजपूतानियों द्वारा मुख्य कथानक कहानी ही है । इस काव्यका सृजन मुख्य रूपसे दोहे - चौपाइयों में किया गया है । यद्यपि बीच-बीच में योग्य स्थानपर करुणरस- परिप्लावित पद- उमिगीत भी आये हैं । पद्मनाभ कविकी वाणी ओजस्वी, प्रवाहबद्ध, प्रासादिक एवं देशभक्ति की सचोट ध्वनिवाली है । कविका भाषा प्रभुत्व एवं शब्द निधि असाधारण है । यह कथा काव्य युद्ध - विजयी होनेपर भी मुस्लिम सत्ताके साथ संघर्षका निरूपण होते हुए, युद्धकी परिभाषाके और फारसी-अरबीके मूल शब्द' भी इसमें प्रचुर मात्रामें आये हैं । पद्मनाभ, कान्हड़देव के वंशज जालौर के शासक अखेराजके राजकवि होने के कारण इन्हें ऐतिहासिक तथ्य एवं पार्श्वभूमिकाका पूर्ण ज्ञान है । हिन्दू और मुस्लिम राजनीतिका इन्हें प्रत्यक्ष अनुभव है और इसी कारण ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिसे भी 'कान्हड़देप्रबन्ध' एक महत्त्वपूर्ण रचनाके रूपमें सर्व स्वीकृत । इसमें तात्कालिक सामाजिक परिस्थितिका पूर्ण आभास मिलता है । इस प्रकारसे भाषा साहित्य एवं ऐतिहासिक ज्ञानपिपासुओंके लिए यह 'कान्हड़देप्रबन्ध' अनेक रूपसे विशेष महत्त्वकी रचना है। गुजरात निवासी कविने राजस्थानके एक प्रमुख शहर जालौर में इसकी रचना की हो । वास्तवमें १६वीं शताब्दि तक गुजरात और राजस्थानकी जो भाषा विषयक एकता थी यह, इस बातका परिचायक बन जाता है । बादके समय में विकसित हुई अर्वाचीन गुजराती और राजस्थानी इन जुड़वांभाषाओं का एक एवं असंदिग्ध पूर्व रूप, अन्यब हुसंख्यक रचनाओंके समान 'कान्हड़देप्रबन्ध' में भी उपलब्ध है | किन्तु, हमारे प्राचीन साहित्यका अध्यापन करने वालोंको और प्राचीन समयके कवियोंकी रचनाओंको मुख परम्परा द्वारा किंवा अन्य रीतिसे सुरक्षित रखनेवाले जन समुदायको भी 'कान्हड़दे प्रबन्ध' और इस ग्रन्थके रचयिताका विस्मरण हो गया था । अर्वाचीन कालमें इसकी खोजका श्रेय संस्कृत प्राकृतादि सहित भारतीय विद्या प्रकाण्ड विद्वान् डॉ० ज्योर्ज ब्यूलरको है । अनुमानतया सौ वर्ष पूर्व बम्बई सरकारकी योजना के अनुसार संस्कृत हस्तलिखित प्रतियोंकी खोज करते समय थरादके जैन ग्रन्थ भण्डार में प्रथम बार इस 'कान्हड़देप्रबन्ध' की प्रति देखनेमें आई । डॉ० ब्यूलर बम्बई क्षेत्रके शिक्षाविभागीय एक उच्च अधिकारी थे । इन्होंने अपने ही विभागके श्री नवलराम लक्ष्मीराम पण्ड्या जो गुजराती साहित्य के अग्रगण्य अपितु विशिष्ट विवेचक थे । गुजराती भाषाके अधिकारिक विद्वान् के रूपमें आपको इनके प्रति बहुत आदर था । 'कान्हड़देप्रबंध' की नकल करा कर उसे ब्यूलरने नवलरामके पास भेजी । इन दोनोंमें नवलराम 'गुजरात शालापत्र' १. प्रमाण- दृष्टि से देखें तो प्राचीन गुजराती साहित्यकी किसी अन्य रचनामें फारसी - अरबीके इतने शब्द नहीं हैं । सन् १९५३-५४में जब मैं बी० ए०के छात्रोंको 'कान्हड़दे प्रबंध' का अध्यापन करा रहा था उस समय इसमें के इस प्रकारके शब्दोंकी सार्थ सूची मेरे एक छात्र श्री नलिनकान्त पंड्या की सहायता से एवं बड़ौदा विश्वविद्यालय के फारसी विभागके तत्कालीन अध्यक्ष श्री एम० एफ० लोखण्डवाला के सहयोगसे तैयार की थी । (बुद्धिप्रकाश, जून १९५४) कान्हड़देप्रबंध में फारसी-अरबीके १११ शब्द हैं । एक ही शब्द की पुनरावृत्ति की तथा फारसी अरबीके विशेष नामोंका इस संख्या में समावेश नहीं है । तथापि इस प्रकार के समस्त प्रयोगोंकी भी जानकारी प्रस्तुत सूची में अंकित कर दी गई है । २१२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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