Book Title: Kanhadde Prabandh Sanskrutik Drushti se
Author(s): Bhogilal J Sandesara
Publisher: Z_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ साहित्यमें और संस्कृत कोषोंमें भी इसी प्रकारके घोड़ोंके नाम मिलते हैं। इन नामोंमें कुछ तो उनके रंगपरसे और कुछेक शरीराकृति परसे हैं । कतिपय नाम देशवाचक है (जैसे कि, सिंघूया, पहिठाणा, उत्तर देशके ऊंदिरा, कनूज देशके कुलथा, मध्य देशके महूयड़ा, देवगिरा, बाहड़देशके बोरिया-पृ०४२-४३) कुछेक तो स्पष्टरूपसे परदेशी है (जैसे कि, स्पाणीपंथा, नई खुरसाणी, एक तुरकी तुरंग, खण्ड १ कड़ी १८५ इसके उपरान्त देखें-तोरका-खेत्र, खुरासाणी, पृ० ५२-५३) आज तो इनमें के कुछेक नामोंका अर्थ सर्वथा समझमें ही आता है। यह सम्भव है कि इनमें से अमक विदेशी हों । संस्कृत कोषोंमें भी इसी प्रकारके नाम आये हैं। उच्च श्रेणीके युद्धोपयोगी घोड़ोंका विदेशोंसे भारतमें आयात होता रहता था। संस्कृत-प्राकृत साहित्यमें ईरानी किंवा अरबी घोड़ोंके सौदागरोंके सम्बन्धमें उपलब्ध अनेकों वार्तायें इसका सूचक है। जिस प्रकारसे गौका घण, महिषका खांडु और भेड़-बकरीका बाघ उसी प्रकारसे तेज उपयोगी घोड़ोंके समुदायके सम्बन्धमें प्राचीन गुजराती में 'लास' शब्दका व्यवहार हुआ है। सुल्तान अलाउद्दीनके सम्मुख माधव मेहता द्वारा 'घोड़ोंकी लास' भेंट कराते हुए 'कान्हड़देंप्रबन्ध'कारने वर्णन किया है धरी भेटी घोड़ानी लास, मीर ॐबरे करी अरदास बडउ मुकर्दम माधव नाम, पातिसाहनइ करइ सिलाम (खण्ड १, कड़ी २०) ठेठ विक्रमके तेरहवें शतकके 'भरत-बाहुबलि रास' में 'हय लास' शब्दका प्रयोग आया है और सत्रहवें शतक तक यह शब्द यदा-कदा दिखाई देता रहा है। सं० लक्ष्मीपरसे इसकी व्युत्पत्ति उचित प्रतीत नहीं होती है। घोड़ोंके समूहका अर्थ व्यक्त करते समय किसी विदेशी शब्दका यह रूपान्तर होना सम्भव है । अर्वाचीन गुजराती भाषाके उत्तम अश्ववाचक कुछेक शब्द-'केकाण', 'तोरवार', 'ताजी-तेजी', विदेशी हैं । युद्ध सम्बन्धी काव्य होने के कारण यह स्वाभाविक है कि 'कान्हड़देप्रबन्ध में अस्त्र-शस्त्रोंका उल्लेख हो। खड्ग एवं खांडु एक ही अर्थवाचक अनुक्रमसे तत्सम और तद्भव शब्द हैं और उसके अनेक प्रकारके नाम वर्णकोंमें उपलब्ध होते हैं ('वर्णक-समुच्चय', भाग २ सूचीयें पृ० १८७)। जो सीधे फलकवाला और चौड़ाई लिये हुए हो उसे खड्ग, टेढ़े फलकवाली तलवार, सीधी तलवारके समान पतले फलक का जो मुड़ जाय ऐसे खड्गको पटा कहते हैं । इस खड्ग द्वारा खेले जानेवाले खेलको पटाबाजी कहते हैं । करण वाघेला बिना म्यानका पटा अपने हाथमें रखता था।' कान्हड़देप्रबन्धमें इस सम्बन्धमें ऐसा वर्णन आया है एहवउ अंग तणउ अनुराग, नितनित मच्छ करइ वछनाग विण पडियार पटउ कर वहइ, न को अंगरखजमलउ रहइ (खण्ड १, कड़ी २४) फिर आगे चलकर खांडा और तलवारसे पृथक् पटाका उल्लेख है वहाँ भी यह भिन्नता स्पष्ट हो जाती है। कान्हड़देवकी सहायतामें छत्तीसों राजवंशी एकत्र होते हैं और वे अपने-अपने शस्त्रोंको धारण करते हैं अंगा टोप रंगाउलि खांडा, खेडां पटा कटारी सींगणि जोड भली तड्यारी, लीजइ सार विसारी (खण्ड १, कड़ी १८१) खांडा पटा तणा गजवेलि, अलवि आगिला हीडइ गेलि (खण्ड ४, कड़ी ४७) 'कान्हड़देप्रबन्ध'में कुछेक अल्पज्ञात शस्त्रोंमें 'गुर्जर'का उल्लेख है और 'वर्णक-समुच्चय' (भाग २ सूचोयें पृ० १८८) में भी इसका 'गुरुज' नामसे नामान्तर प्राप्त होता है। कान्हड़देवका भतीजा सांतलसिंह रात्रिके समय सुल्तानकी छावनीमें जाकर निद्रामग्न सुल्तानका गुरुज अपने साहसिक निशानी स्वरूप ले आता है भाषा और साहित्य : २१९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13