Book Title: Kaluyashovilas Part 02
Author(s): Tulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
Publisher: Aadarsh Sahitya Sangh

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Page 9
________________ स्वकथ्य हर प्राणी का जीवन गमन-आगमन की एक लम्बी श्रृंखला है। इस शृंखला में बंधे हुए हजारों-लाखों व्यक्तियों में कोई विरल व्यक्तित्व ही ऐसा होता है, जो इतिहास के संपर्क में आकर अपने अस्तित्व को स्थायित्व दे जाता है। मेरे जीवन-निर्माता, शिक्षा और दीक्षा-गुरु आचार्यश्री कालूगणी तेरापन्थ धर्मसंघ के आकाश-पटल पर महासूर्य की भांति उदित हुए। नए जीवन में प्रवेश के समय कालूगणी ग्यारह वर्ष के सुकुमार बालक थे। मुझे याद है, मैं भी इसी अवस्था में दीक्षित हुआ था। मैं पूज्य गुरुदेव कालूगणी की परम कारुणिक छाया में पला, उसी प्रकार कालूगणी भी मघवागणी के अप्रतिम स्नेह में निमज्जित होकर रहे । पूज्य गुरुदेव ने मेरे साथ उन्हीं व्यवहारों का प्रत्यावर्तन किया, जिन व्यवहारों की परिधि में उन्होंने मघवागणी की वरद अनुकंपा का संस्पर्श किया था। इससे आगे की बात लिखू तो वह यह होगी कि कालूगणी अपने गुरुदेव से कुछ आगे बढ़ गए। उन्होंने मुझे प्रत्यक्षतः दायित्व सौंपकर आचार्य और युवाचार्य के बीच का मांगलिक संबंध स्थापित कर लिया, जबकि मघवागणी प्रत्यक्ष रूप से ऐसा कुछ नहीं कर पाए। यद्यपि कालूमुनि को सर्दी से ठिठुरते देख उन्हें अपनी चद्दर ओढ़ाकर तथा कुछ अन्य विलक्षणताओं को प्रकट कर मघवागणी ने भी परोक्ष संकेत अवश्य दे दिए थे, किंतु उन्हें साक्षात रूप में उत्तराधिकार सौंपने की दृष्टि से उस समय परिस्थितियां इतनी अनुकूल नहीं थीं। यह संभावना की जा सकती है कि यदि कालूगणी मघवागणी की सन्निधि कुछ वर्ष और पा लेते तो इतिहास में एक विलक्षण घटना घटित होती। वह विलक्षणता नियति को मान्य नहीं थी, अतः पांच वर्ष की सुखद अनुभूतियों पर एक पटाक्षेप हो गया। पांच साल की छोटी-सी अवधि में भी कालूगणी ने मघवागणी से जो स्नेह-संपोषण और आंतरिक नैकट्य पाया, वह उनके भावी जीवन-निर्माण का पुष्ट और अकंप आधार बन गया। कालूयशोविलास-२ / ७

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