Book Title: Kalidas ki Rachnao me Ahimsa ki Avadharna
Author(s): Ravishankar Mishr
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf

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Page 2
________________ कालिदास की रचनाओं में अहिंसा की अवधारणा १७९ निरीह पशुओं की निर्मम हत्या का प्रबल विरोधी था । शायद कवि की इसी अहिंसात्मक-भावना के परिणाम-स्वरूप इस प्रसङ्ग में नायक की प्रतिष्ठा के साथ ही हमें अहिंसा के प्रति उसका अपार प्रभाव प्रतिभासित होता है। एक अन्य प्रसङ्ग में राजा दिलीप महर्षि वशिष्ठ द्वारा प्रदत्त नन्दिनी धेनु की रक्षार्थ अपने शरीर को सिंह के समक्ष प्रस्तुत करने को उद्यत मिलते हैं स त्वं मदीयेन शरीरवत्ति देहेन निवर्तयितं प्रसीद । दिनावसानोत्सुकबालवत्सा विसृज्यतां धेनुरियं महर्षेः ।।' [चंकि आप अपने समीप आने वाले प्राणियों से अपनी जीविका का निर्वाह करते हैं, अतः मेरे शरीर से अपने जीवन की रक्षा कीजिये और दिन के समाप्त होने पर उत्कण्ठित छोटे बछड़े वाली महर्षि की इस धेनु को छोड़ दीजिये । 1 इस प्रसङ्ग के पीछे कवि की अहिंसाप्रधान नीति ही प्रमुख रही है, तभी तो उसने भगवान् शङ्कर के सिंहरूपधारी उस अनुचर की हिंसा करने को उद्यत राजा दिलीप के हाथ को उनके तूणीर में रखे हुए बाणों में विद्ध करवा दिया। इस प्रसङ्ग की प्रस्तुति के पीछे ध्यातव्य यह है कि कवि ने अपनी अहिंसाप्रधान नीति पर विशेष बल देने हेतु बलात् ही इस प्रसङ्ग को काव्य में जोड़ने का प्रयास किया है; अन्यथा उसके समक्ष अन्य ऐसा कौन सा कारण हो सकता था, जिसके लिए सिंह की हिंसा के लिए उद्यत राजा दिलीप के हाथ को वह तूणीर में विद्ध करवाता। एक अन्य प्रसङ्ग में हम देखते हैं कि राजा रघु के पुत्र कुमार अज एक स्वयंवर में भाग लेने हेतु विदर्भ देश जा रहे हैं। मार्ग में उनके एक पड़ाव पर एक जङ्गली हाथी उन पर आक्रमण कर देता। इस पर 'हाथी मर न जाय' इसका ध्यान रखते हुए कुमार अज ने उस हाथी को मात्र भयभीत करने के उद्देश्य से, उस पर एक साधारण बाण छोड़ दिया तमापतन्तं नृपतेरवध्यो वन्यः करीति श्रुतवान्कुमारः । निवर्तयिष्यन्विशिखेन कुम्भे जघान नात्यायतकृष्टशाङ्गः ॥२ [ जङ्गली हाथी राजा के लिए अवध्य होता है यह बात कुमार अज को शास्त्रों द्वारा ज्ञात थी, अतः उन्होंने उसे आगे न बढ़ने देने की इच्छा से अपने धनुष को थोड़ा ही खींचकर एक बाण से उसके मस्तक पर आघात किया । ] बाण लगने मात्र से वह जङ्गली हाथी अपने हाथी के उस रूप को छोड़कर गगनचारी गन्धर्व का मनोहर रूप धारण कर कुमार अज के सम्मुख उपस्थित हुआ और बोला कि मैं प्रियम्वद नामक गन्धर्व हूँ, अपने गर्व के कारण मैंने मतङ्ग ऋषि के शाप द्वारा गजयोनि को प्राप्त कर लिया था। उसने आगे कहा १. रघुवंश : महाकवि कालिदास, २।४५ । २. वही, २।३१। ३. वही, ५।५० । ४. रघुवंश : महाकवि कालिदास, ५।५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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